A.U. B.A. Ist Year Hindi I Ch.1 ( मैथिलीशरण गुप्त) - 1

प्र.1. ‘साकेत’ के प्रबन्ध सौष्ठव का मूल्यांकन कीजिये।

उ. साधारणतया एक प्रबन्ध-काव्य के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं -

(1) सानुबन्ध कथा - ‘साकेत’ का कथानक भारत की चिरविश्रुत रामकथा है। गुप्तजी ने पूर्ववर्ती राम-साहित्य में बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी इसे नवीन रूप में उपस्थित किया है। प्रस्तुत काव्य का आरम्भ लक्ष्मण-उर्मिला के प्रेमालाप से होता है, जिसके अन्त में राम के राज्याभिषेक की सूचना दे दी जाती है। प्रस्तुत काव्य में मौलिक-कथा-का-सा आनन्द आता है। काव्य में जिन घटनाओं को कथासूत्रा में पिरोया गया है, वे सभी अयोध्या में घटित होती हैं। ‘साकेत’ की सभी घटनायें उर्मिला के जीवन-चरित्रा से सम्बद्ध हैं, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उर्मिला का व्यक्तित्व ही केवल उन्हें अन्वित किये हुए है, उसमें स्वयं क्रम अथवा सम्बन्ध नहीं है। सफल काव्यों में प्रधानता चाहे चरित्रा की हो, अथवा वस्तु की, परन्तु उपेक्षा दोनों में किसी की नहीं की जा सकती। अतः ‘साकेत’ की कथावस्तु में यह देखना आवश्यक है कि उसमें घटनाओं की परम्परा का उचित विन्यास कहाँ तक हुआ है और उनका विकास क्रमिक है अथवा अस्त-व्यस्त। अरस्तू के अनुसार कथावस्तु के तीन अंग- आदि, मध्य और अवसान स्पष्ट होने चाहिए - तभी विन्यास संगठित होगा। ‘साकेत’ की मुख्य कथा उर्मिला-लक्ष्मण के संयोग-वियोग की कथा है जिसके साथ राम और सीता की कथा भी लिपटी हुई है।

(2) अवान्तर कथा एवं घटनायें - प्रस्तुत काव्य में अवान्तर कथाओं एवं घटनाओं का संगुम्फन भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा है कि, ‘साकेत’ में सम्पूर्ण अवान्तर कथाओं एवं घटनाओं का पूरा-पूरा सम्बन्ध उर्मिला की जीवन-गाथा से जोड़ा गया है, जिससे सम्पूर्ण कथा का केन्द्र-बिन्दु उर्मिला बन गई है और इसी से काव्य के इतिवृत्त में क्रमबद्धता न होने पर भी समस्त उपकथाओं एवं घटनाओं में क्रमबद्धता आ गई है। उदाहरण के लिए, वनवास के प्रसंग में राम के साथ लक्ष्मण को वन जाता हुआ देखकर उर्मिला को भी अपनी बहिन सीता के साथ जाने की इच्छा होती है, परन्तु लक्ष्मण यह कहकर रोक देते हैंµ”रहो, रहो, हे प्रिये! रहो।“ तब उर्मिला अपने मन कोµ ”तू प्रिय-पथ का विघ्न न बन।“ कहकर समझा लेती है।

(3) भावात्मक स्थलों सहित वस्तु-वर्णन - किसी प्रबन्ध-काव्य में कोई एक कथा मुख्य रूप से रहती ही है, परन्तु उसके साथ ही बीच-बीच में कवि ऐसी-ऐसी वस्तुओं एवं व्यापारों का वर्णन भी करता चलता है, जिन्हें अध्ययन करने पर पाठकों के मन में आनन्द-ऊर्मियाँ उठने लगती हैं। भावात्मक स्थलों के कारण ही ‘साकेत’ में सरलता आ गयी है और शृंखला-विहीन इतिवृत्त के रहते हुए भी यह प्रबंध-काव्य रसात्मक हो गया है। एकादश और द्वादश सर्गों में शूर्पणखा-प्रसंग, खरदूषण-वध, सीता-हरण, लक्ष्मण-शक्ति-प्रसंग आदि कथित अथवा प्रदर्शित हैं। शूर्पणखा के विकलांग होने तथा खरदूषण के वध की बात शत्राुघ्न सुनाते हैं, जिन्हें कि एक व्यवसायी से इसका पता लगता है। इसके आगे लक्ष्मण-शक्ति तक की कथा संजीवनी बूटी के निमित्त आये हुए हनुमान सुनाते हैं। हनुमान द्वारा लक्ष्मण के मूर्च्छित होने का समाचार मिलते ही अयोध्या की सेना लंका-प्रस्थान को तैयार हो जाती है। इतने में महामुनि वशिष्ठ आ जाते हैं और सेना-प्रयाण को रोकते हैं। शेष युद्ध वे सबको अपनी योग-दृष्टि द्वारा साकेत में ही दिखा देते हैं। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा है कि किसी प्रकार चित्राकूट की प्रातःकालीन मनोरम झाँकी षट्ऋतुओं के मनोहारी वर्णन आदि में स्थानगत एवं देशगत विशेषताओं का चित्राण करके कवि ने इन भावात्मक स्थलों को जीवन से पूर्णतया सम्बद्ध कर दिया है, जिससे समस्त वस्तु-वर्णनों में आन्तरिक एवं बाह्य दोनों दृष्टियों से जीवन का घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया है। यही कारण है कि इन वर्णनों में आधुनिक भारतीय जीवन भली-भाँति मुखरित हो उठा है, जो इस काव्य को प्रबन्ध-काव्य का रूप देने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुआ है।


प्र.2. साकेत की काव्य भाषा पर टिप्पणी लिखिये।                                                 (2011)  

अन्य सम्बन्धित प्रश्न -

प्र. साकेत के नवम् सर्ग के आधार पर मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिये। (2017) 

प्र. साकेत के नवम् सर्ग का काव्य सौष्ठव और संवेदना पर प्रकाश डालिये।                                       (2013)

उ. श्री मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रतिनिधि कवि हैं। उनके काव्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति का सुन्दर समन्वय हुआ है। इसलिए द्विवेदी युग के कवियों में उन्हें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। काव्य सौष्ठव की दृष्टि से उनका मूल्यांकन करते समय यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि उनमें सूक्ष्मतम अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की अनुपम कुशलता है। उनका भाव पक्ष, जितना समृद्ध है, कलापक्ष भी उतना ही सबल है।

भावपक्ष -

भावपक्ष के अंतर्गत कवि के काव्य का वर्ण्य-विषय, उसमें अभिव्यक्त विचार, चरित्रा-चित्राण, रस-परिपाक, मार्मिक प्रसंगों का सुनियोजन, काव्य का मूल संदेश, प्रकृति-चित्राण, आदि सम्मिलित होते हैं। श्री मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य में भावपक्ष की ये समस्त विशेषताएँ पूर्ण रूप से पुष्ट और समृद्ध हैं।

वर्ण्य-विषय -

गुप्त जी के काव्य में वर्ण्य-विषय जीव के विविध पक्षों को उद्घाटित करने वाले विभिन्न क्षेत्रों से चुने गये हैं। उनके साकेत, पंचवटी और प्रदक्षिणा रामायण पर आधारित हैं, जयद्रथ वध, शकुन्तला, सैरन्ध्री, तिलोत्तमा, वन-वैभव, वकसंहार, हिडिम्बा, जयभारत आदि महाभारत पर आधारित हैं; चन्द्रहास, द्वापर, नहुष, पृथ्वीपुत्रा पुराणों पर आधारित हैं। रंग में भंग, विकट भट, सिद्धराज मध्यकालीन राजपूत संस्कृति से सम्बन्धित हैं; यशोधरा बौद्ध, शक्ति-शाक्य, गुरूकुल सिख तथा काबा और कर्बला मुस्लिम परम्परा से सम्बन्धित हैं। इनके अतिरिक्त भारत-भारती, अनघ स्वदेश गीत, हिन्दु मंगलघट, अर्जन और विसर्जन, अजित, अंजलि और अर्ध्य आदि काव्य संग्रहों में उन्होंने प्राचीन आर्य संस्कृति की विशेषताओं के उद्घाटन के साथ ही आधुनिक समस्याओं को मौलिक कल्पना के साथ प्रस्तुत किया है। वर्ण्य विषय के इस व्यापक क्षेत्रा में विविध प्रकार के भावों को विस्तार मिला है।

चरित्रा-चित्राण -

पात्रों के चरित्रों के माध्यम से उन्होेंने समाज, राजनीति, कला, कर्म आदि सभी क्षेत्रों में आदर्श प्रस्तुत किये हैं। उनके चरित्रा आदर्श भावों से ओत-प्रोत हैं। उनके साकेत की उर्मिला वियोग की अवस्था में भी प्रिय के गौरव का अपकर्ष नहीं देखती। उन्माद के क्षणों में जब उसे लक्ष्मण अपने सामने खडे़ से जान पड़ते हैं, तो वह व्याकुल हो उठती है। उसकी भावना को ठेस लगती है। लक्ष्मण का कर्त्तव्य-पथ से विचलित होना तो उसका पतन है और वह कह उठती है -

प्रभु नहीं फिरे, क्या तुम्हीं फिरे?

हम गिरे अहो! तो गिरे, गिरे?

गुप्त जी के पात्रा उदार-हृदय के हैं। उर्मिला विरह में सूरदास की गोपियों के समान मधुबन को हरे-भरे रहने का उलाहना नहीं देती, वह तो कहती है -

‘रह चिर दिन तू हरी भरी।’

अपने दोषों को जन-समूह के सामने स्वीकार करती कैकेयी की स्पष्टवादिता और आत्मचिन्तन उसके व्यक्तित्व को गरिमामय बना देते हैं -

क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी।

मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।

युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी,

रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।

गुप्त जी के सभी पात्रा उदात्त गुणों से युक्त, तेजस्वी और कर्मठ हंै। पात्रों के माध्यम से गुप्त जी ने लोक-मंगल का आर्दश प्रस्तुत किया है।

रस-परिपाक - 

रस-योजना की दृष्टि से भी गुप्त जी का काव्य पर्याप्त समृद्ध है। उनके काव्य में प्रायः सभी रस अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ समाहित हैं। ‘साकेत’ में श्रृंगार और करूण रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। नवम् सर्ग में उर्मिला की विरह-वेदना द्रवित होकर बह निकली है। वियोग-श्रृंगार की जड़ता-जन्य करूण-दशा की पराकाष्ठा देखिये -

हँसी गयी, रो भी न सकूँ मैं अपने इस जीवन में।

तो उत्कण्ठा है, देखूँ फिर क्या हो भाव भुवन में।।

यशोधरा और द्वापर में वात्सल्य रस के मनोहारी चित्रा हैं। देश-प्रेम सम्बन्धी काव्यों में वीर, रौद्र और भयानक रसों का वर्णन है।

प्रकृति-वर्णन - प्रकृति के अनेक सुन्दर चित्रों से गुप्त जी का काव्य रंगा हुआ है। उनके काव्य में प्रकृति आलम्बन, उद्दीपन आदि सभी रूपों में वर्णित हुई है। 

आलंकारिक रूप में प्रकृति-वर्णन के अनेक सुन्दर चित्रा गुप्त जी ने प्रस्तुत किये हैं। उद्दीपन-रूप में प्रकृति का चित्राण उर्मिला के विरह-वर्णन में प्राप्त होता है। संयोग-काल की सुखद वस्तुएँ ही वियोग-काल में दुःखद बन जाती हैं। आकाश के तारे उसे किसी के शरीर में पड़े फफोले जैसे जान पड़ते हैं -

‘नैश गगन के गात में पड़े फफोले हाय।’

चँादनी रात में स्तब्ध, शान्त कुंज वियोगिनी को ऐसे प्रतीत होते हैं मानो रोकर, निराश होकर वे सो गये हैं और चाँद, चाँदनी का वस्त्रा उन्हें उढ़ा रहा है -

हाँ मेरे कुंजो का कूजन रोकर निराश होकर सोया।

यह चन्द्रोदय उढ़ा रहा है उसको धवल वसन धोया।।

इस प्रकार प्रकृति के अनेक मोहक चित्रा गुप्त जी के काव्य में प्राप्त होते हैं।

कला-पक्ष - कला-पक्ष के अन्तर्गत भाषा-शैली, अलंकार, छन्द, बिम्ब-विधान, प्रतीक-योजना आदि अभिव्यक्ति के माध्यमों पर विचार किया जाता है।

भाषा - गुप्त जी खड़ी बोली के प्रतिनिधि कवि हैं। गद्य के क्षेत्रा में खड़ी बोली भारतेन्दु-युग में मान्य हो गयी थी, परन्तु काव्य में उस समय भी ब्रजभाषा का ही प्रचलन था, लोगों को विश्वास था कि खड़ी बोली में ब्रजभाषा का माधुर्य आ ही नहीं सकता है। खड़ी बोली के कवियों में अग्रगण्य थे मैथिलीशरण गुप्त जी। ‘‘उनके जयद्रथ-वध की प्रसिद्धि ने ब्रजभाषा के मोह का वध कर दिया। गुप्त जी ने खड़ी बोली में सरलता और मधुरता उत्पन्न करके यह सिद्ध कर दिया कि खड़ी बोली में भी ब्रजभाषा का सा माधुर्य आ सकता है। गुप्त जी की भाषा सरस, मधुर, प्राजंल, संयत और व्याकरण-सम्मत है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का भी प्रयोग हुआ है।’’

शैली - गुप्त जी ने विविध काव्य-शैलियों में अपनी काव्य-रचना की है। प्रबन्धात्मक शैली में साकेत, यशोधरा, रंग में भंग, पंचवटी, जयद्रथ-वध आदि की रचना की, गीतात्मक शैली में भारत-भारती, स्वदेश प्रेम, हिन्दू, गुरूकुल आदि लिखे। तिलोत्तमा, चन्द्रहास और अनघ गीति नाट्य शैली में है तथा झंकार के गीत भावात्मक शैली में रचित हैं। इसके साथ ही कुछ रचनाएँ उनकी गीत मुक्तक-शैली में हैं तथा कुछ कविताओं में उपदेशात्मक शैली के दर्शन होते हैं। इस प्रकार गुप्त जी ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य-शैलियों का प्रयोग किया है। 

अलंकार निरूपण - गुप्त जी के काव्य में प्रायः सभी अलंकारों का प्रयोग हुआ है। अलंकार भाषा में स्वाभाविक रूप से ही नियोजित हैं, अतः उनके काव्य सौन्दर्य में वृद्धि हुई है। वे पाठक को चमत्कृत नहीं करते अपितु हृदय में रसोद्रेक करते हैं। यही अलंकार प्रयोग की स्वाभाविकता है। उनकी कविता अलंकारों की अधिकता से बोझिल नहीं है, वरन् अलंकारों ने उनकी गति को चारूता प्रदान की है। कुछ प्रमुख अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत हैं -

अनुप्रास - सखि, निरख नदी की धारा

ढलमल ढलमल चंचल अंचल झलमल झलमल तारा।

श्लेष - हंस छोड़ आये कहाँ मुक्ताओं का देश।

यहाँ वन्दिनी के लिए लाये क्या संदेश?

रूपकातिशयोक्ति - ठेल मुझे न अकेली, अन्य-अवनि-गर्म-गेह में आली।

आज कहाँ है उसमें हिमांशु-मुख की अपूर्व उजियाली।

रूपक - लखि नील नभस्सर में उतरा, यह हंस अहा! तरता तरता।

अब तारक मौक्तिक शेष नहीं, निकला जिनको चरता चरता।।

छन्दोविधान - गुप्त जी ने सभी प्रमुख छन्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने रोला, दोहा, छप्पय, कवित्त, सवैया, शिखरणी, मालिनी, आर्या, हरिगीतिका, शार्दूलविक्रीड़ित, घनाक्षरी आदि छन्दों को भाव और विषयानुकूल नियोजित किया है। साकेत और यशोधरा में छन्दों की विविधता, दर्शनीय है। इस छन्द-वैविध्य से जहाँ काव्य में एकरसता नहीं आ पाती, वहीं इसके द्वारा कवि के छन्द ज्ञान का परिचय भी मिलता है। छन्दों की तुकयोजना में गुप्तजी को महारत हासिल है। चाहे जैसा अन्त्यानुप्रास हो, वे उसे खोज ही लाते हैं।

इस प्रकार मैथिलीशरण गुप्त जी की कविता न तो भारी भरकम जेवरों से लदी मन्दगामिनी, प्रासादों की असूर्यम्पश्या राजपुत्राी ही है और न इस युग की अप-टू-डेट पुरूषोचित आवरण धारण करने वाली रेस कोर्स में घोड़े की संचालिका नर-रूपा नारी है। उसकी तुलना आधुनिक युग के मध्य वर्ग की सुसंस्कृत नारी से की जा सकती है, जो प्राचीन युग से सांध्यराग को अपनाये हुए भी उषाकाल के नवीन बालारूण की तरह प्रफुल्लित रहती है।