प्र.2. सुमित्रानन्दन पंत की काव्य भाषा की समीक्षा कीजिये। (2008)
अन्य सम्बन्धित प्रश्न -
प्र. पंत की काव्य भाषा पर टिप्पणी लिखिये। (2009)
उ. पन्त जी छायावादी काव्य के प्रमुख कवि हैं। खड़ी बोली को काव्य के उपयुक्त ललित, कोमल, सरस एवं आकर्षक बनाने में, उनका प्रमुख हाथ रहा है। कोमलकान्त पदावली के वे निर्माता माने जाते हैं। खड़ी बोली को ब्रजभाषा जैसी मधुरता प्रदान करने में उनका विशेष हाथ रहा है। इन्होंने भाषा को भावाभिव्यक्ति का साधन ही नहीं माना है वरन् उसके संस्कृत एवं अलंकृत रूप को भी मान्यता प्रदान की है। इतना ही नहीं छायावादी काव्य-भाषा की सम्पूर्ण विशेषताएँ भी इनके काव्य में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं। उन्होंने एक ओर यदि लाक्षणिक पदावली के प्रयोग से अपने काव्य को अर्थवत्ता प्रदान की है तो दूसरी ओर उन्होंने प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से मानवीय भावनाओं को व्यंजित कर दिखाया है। इसी प्रकार संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग द्वारा उन्होंने यदि भाषा को गम्भीरता प्रदान की है तो दूसरी ओर कोमलकान्त पदावली के प्रयोग से भाषा को सरसता एवं गेयात्मकता की महत्ता भी प्रदान कर दी है।
उनकी भाषागत विशेषताओं को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है -
1. चित्रात्मकता - शब्दों के माध्यम से अपने काव्य के चित्रा पाठकों के समक्ष उपस्थित करने में पंत जी सिद्धहस्त हैं। पन्त जी के काव्य में इस प्रकार का चित्राण दो रूपों में दृष्टिगत होता है। प्रथम गत्यात्मक सौन्दर्य चित्राण के रूप में और द्वितीय स्थिर चित्राण के रूप में।
(क) गत्यात्मक सौन्दर्य चित्राण - अपने इस प्रकार के चित्राण द्वारा उन्होंने काव्य को इस तरह से उपस्थित किया है कि पूरा-का-पूरा दृश्य अपने पूर्ण वातावरण के साथ ही उपस्थित हो गया है। देखिए -
बासों का झुरमुट, सन्ध्या का झुटपुट।
है चहक रही चिड़ियाँ टी-वी-टी टुट टुटड्ड
यहाँ उपर्युक्त पद में ‘बासों का झुरमुट’ यदि किसी वन प्रांत का सूचक है तो ‘संध्या के झुटपुट’ के द्वारा वन प्रांत के उस वातावरण को व्यंजित कर दिया गया है जो धुँधलके से व्याप्त हो गया है। इसी प्रकार ‘टी-वी-टी टुट-टुट’ के द्वारा पक्षियों के आनन्द मिश्रित कोलाहल को स्पष्ट कर दिया है जो उन्हें अपने बच्चों से मिलने की आतुरता से उन्हें अपने नीड़ों की ओर प्रेरित कर देता है।
(ख) स्थिर सौन्दर्य चित्राण - शब्दों के माध्यम से अपने इस प्रकार के चित्राण द्वारा उन्होंने यदि अपने काव्य को सजीवता प्रदान की है तो दूसरी ओर भावोत्कर्षकता भी। निर्जन टीले पर खड़े दो वृक्षों का दृश्य देखिए -
उस निर्जन टीले पर, दोनों चिलबिल
एक दूसरे से मिल, मित्रों से हैं खड़े।
मौन मनोहर, दोनों पादप, सह वर्षातप
हुए साथ ही बड़े दीर्घ सुहदत्तरड्ड
2. ध्वन्यात्मकता - ध्वनि चित्राण को पन्त की भाषा की द्वितीय विशेषता के रूप में देखा जा सकता है। वे ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जो भाव की ध्वनि को स्पष्ट रूप में अंकित करते हैं अर्थात् वे भाव एवं भाषा के सामंजस्य द्वारा वर्णित विषय को साकार कर देते हैं देखिए -
पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश।
मेखलाकार पर्वत अपार, अफने सहस्त्रा दृग-सुमनफार।
अवलोक रहा है बार-बार, नीचे जल में निज महाकार।
यहाँ पर ‘पावस ऋतु’ की ध्वनि ही अपनी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ पाठक के समक्ष साकार हो उठता है। इसी प्रकार ‘मेखलाकार’ एवं ‘महाकार’ आदि शब्दों की ध्वनि पर्वत की विशालता, विकरालता को द्योतित करने वाली है।
3. चित्रामय विशेषण - पन्तजी भाषा के चित्रामय-विशेषणों के प्रतिस्थापन में सिद्धहस्त हैं। वे पूरे-पूरे वाक्यों के स्थान पर एक ऐसे चित्रामय विशेषण की सृष्टि कर देते हैं जो सम्पूर्ण वातावरण को साकार कर देता है। वातावरण की सृष्टि के लिए अन्य किसी शब्द या वाक्य की आवश्यकता नहीं रहती। देखिए -
वही मधु-ऋतु की गंुजित डाल, झुकी थी जो यौवन के भार।
अकिंचनता में निज तत्काल, सिहर उठती-जीवन है धार ।।
इस पद में ‘गुि×जत’ विशेषण के द्वारा कविवर पन्त ने एक ऐसी डाल को उपस्थित कर दिखाया है जो फल-फूलों से युक्त और भ्रमरों के गंुजार से शोभायमान है।
4. वर्ण-परिज्ञान - पन्त जी वर्ण विज्ञान के ज्ञाता हैं, देखिएµइन्द्रधनुषी आभा से मण्डित बादलों के घूँघट से कुमुद कला के सदृश झाँकता हुआ कितना आकर्षक, लावण्ययुक्त एवं मनोरम दीखता है -
देखता है जब पतला इन्द्रधनुषी हलका।
रेशमी घूँघट बादल का खोलती है कुमुद कला ।।
5. शब्दों की आन्तरिकता का ज्ञान - शब्दों की आन्तरिकता का विशद ज्ञान पन्तजी को है उन्हीं के शब्दों में भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्द प्रायः संगीत भेद के कारण एक ही पदार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को प्रकट करते हैं, जैसे भू से क्रोध की वक्रता, भृकुटी से कटाक्ष की चंचलता, भौरों से स्वाभाविक प्रसन्नता ऋजुता का हृदय में अनुभव होता है। ऐसे ही हिलोर में उठान, लहर में सलिल के वक्षस्थल का कोमल कम्पन, तरंगों में लहरों के समूह का दूसरे को ढकेलना, उठ-उठ गिर पड़ना, बढ़ो-बढ़ो कहने का भाव मिलता है। अपने कथन के अनुरूप ही उन्होंने शब्दों का प्रयोग किया। देखिए -
अरी सलिल की लोल हिलोर, आ मेरे मृदु अंग झकोर।
नयनों को जिस छवि में बोर, मेरे उर में भर यह रोर ड्ड
अनिल पुलकित स्वर्णाजंल लोल।
मधुर नूपुर ध्वनि खग-कुल रोल ।।
यहाँ ‘लोल’ शब्द लहरों की ध्वनि व्यंजित करता है और ‘रोल’ शब्द पक्षियों की ध्वनि को।
6. संगीतात्मकता - पन्त जी के अनुसार कविता हमारे हृदय की पुकार है। हमारे जीवन का, हमारे अन्तरतम प्रदेश का सूक्ष्माकाश ही संगीतमय है। अपने उत्कृष्ट क्षणों में कविता विश्व के अन्तरतम संगीत को वहन करती है। हमारी सूक्ष्म वृत्तियों को प्रकाश प्रदान करती है।
इसीलिए कवि ने मुक्तक छन्दों का आयोजन व्यक्तियों के मनोरागों को व्यक्त करने के लिए ही किया है।
देखिए -
तप रे मधुर-मधुर मन, अखिल वेदना में तप प्रति पल,
नव जीवन की ज्वाला में जल।
वन अकलुष, उज्जवल और कोमल,
तप रे विधुर विधुर मन ।।
7. माधुर्यगुण - पन्तजी की भाषा में माधुर्यगुण प्रायः सर्वत्रा देखने को मिलता है। एक उदाहरण देखिए -
जग जीवन में चिर महान् सौन्दर्यपूर्ण और सत्य प्राण।
मैं उनका प्रेमी बनूँ नाथ जिसके मानव हित हों समान ।।
8. ओजगुण - पन्त के काव्य में ओजगुण अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुआ है। यहाँ पर कवि की प्रौढ़ता के दर्शन होते हैं। उनके कल्पना का उत्कृष्ट रूप, भाषा का प्रवाह और रूक्ष तथा परुष शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है। परिवर्तन कविता की एक बानगी लीजिए -
अहे एक रोमांच तुम्हारा दिग् भूकम्पन
गिर गिर पड़ते भीत पक्षी पोतों से उडगन,
आलोड़ित अम्बुधि फेनोन्नत कर शत-शत फन
मुग्ध भुजंगम सा, इिúत पर करता नर्तन।
दिक्पि×जर में बद्ध, गजाधिप सा बिनतानन।
वाताहत हो गगन
आर्त करता गुरु गर्जन।।
9. व्याकरण की अवहेलना - खड़ी बोली की कर्कशता को दूर कर उसे काव्यात्मक भाषा बनाने के लिए छायावादी कवियों ने व्याकरण के नियमों की अवहेलना की है। व्याकरण की यह स्वच्छन्दता पन्त में सर्वाधिक परिलक्षित होती है। लिंगों के प्रयोग में व्याकरण की अवहेलना पन्त जी ने प्रायः की है। उनकी मान्यता है कि भावाभिव्यंजना में यदि व्याकरण बाधक है तो उसकी अवहेलना होनी चाहिए। इसी कारण उन्होंने व्याकरण के बन्धन को तोड़कर पुल्लिंग को भी स्त्राीलिंग बना दिया है - देखिये-मित्रा शब्द का प्रयोग उन्होंने किस प्रकार स्त्राीलिंग में किया है -
इस तरह मेरे चितेरे हृदय की,
बाहृा प्रकृति बनी चमत्कृत चित्रा थी।
सरल शैशव की सुखद सुधि सी वही,
बालिका मेरी मनोरम मित्रा थी।।
10. संस्कृतनिष्ठ भाषा - पन्त की भाषा संस्कृत गर्भित है। उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक किया है। देखिए -
सैकत शैय्या पर दुग्ध धवल
तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल,
लेटी है श्रान्त, क्लान्त निश्चल।।
11. मुहावरे एवं कहावतें - पन्त जी की भाषा में मुहावरों एवं कहावतों का अपेक्षाकृत कम प्रयोग हुआ है फिर भी जो हुआ है वह केवल भावों के उत्कर्ष के लिए ही देखिए -
अरे अपलक चार नयन।
आठ आँसू रोते निरुपाय।।
निष्कर्ष - उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भाषा की दृष्टि से पन्त जी आधुनिक हिन्दी के सफल कवि हैं। उन्होंने खड़ी बोली की कर्कशता को दूर कर उसे काव्य के अनुरूप सरस, मधुर एवं कोमल बनाया है। भाषा में माधुर्य की सर्जना करने के लिए उन्होंने ब्रजभाषा के ‘कजरारे’, ‘कारे’, ‘विकरारे’ आदि शब्दों का प्रयोग किया है। यद्यपि उनकी भाषा संस्कृत गर्भित है फिर भी उसमें सरसता, स्पष्टता एवं माधुर्य विद्यमान है। उनकी पद योजना संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी कवियों की पद योजना से प्रभावित है। संक्षेप में यही पन्त की काव्य-भाषा की विशेषताएँ हैं।