A.U. B.A. Ist Year Hindi I Ch.1 ( मैथिलीशरण गुप्त) - 3

 प्र.5. ‘उर्मिला’ के विरह वर्णन में एक ओर प्राचीन शास्त्राकारों की छाया तो दूसरी ओर नूतन का समावेश भी है। इस कथन को साकेत नवम् सर्ग के आधार पर सिद्ध कीजिये।                                                          (2012) 

अन्य सम्बन्धित प्रश्न -

प्र. ‘साकेत’ के नवम सर्ग के आधार पर उर्मिला के विरह वर्णन की समीक्षा कीजिये।                        (2010)

उ. ‘साकेत में काव्य-संस्कृति और दर्शन’ में डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा है कि एक दिन राम पर्णकुटी में गुरूजनों के समीप बैठे हुए थे तब अचानक सीता ने लक्ष्मण को अपने समीप बुलाकर बड़े लाघव के साथ कहा - ‘‘तात! कुटिया में से तनिक ताल-सम्पुट तो ले आओ, मुझे अपनी बहनों को वन के उपहार देने हैं।’’ लक्ष्मण ‘जो आज्ञा’ कहकर जैसे ही पर्णकुटी में घुसे, वैसे ही उन्हें एक कोने में खड़ी हुई दुखिया उर्मिला दिखाई दी जो वियोग-जन्य संताप के कारण अत्यंत क्षीण हो गयी थी। लक्ष्मण उर्मिला को देखते ही सकपका गये, तब उर्मिला बोल उठी -

‘‘मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी,

मैं बाँध न लूँगी तुम्हें, तजो भय भारी।’’

उनकी मधुर वाणी सुनते ही लक्ष्मण दौड़कर उर्मिला के चरणों में गिर पड़े और वह भी अत्यन्त विनम्र होकर अपने अश्रुजल से पदों का प्रक्षालन करने लगीं। परन्तु ‘वन में तनिक तपस्या करके बनने दो मुझको निज योग’ कहते हुए लक्ष्मण विदा होने को तैयार हो गये, और बेचारी उर्मिला केवल हाँ स्वामी! ‘कहना था क्या-क्या कह न सकी कर्माें का दोष, पर जिसमें सन्तोष तुम्हें हो मुझे उसी में सन्तोष’ कहती हुई ही रह गयी क्योंकि उसी समय उन्हें सीताजी की यह वाणी - ‘अरे रे, आ पहुँचे पितृपद भी मेरे’ सुनाई पड़ जाती है और वे प्रेमी दीर्घकाल उपरान्त मिलकर भी फिर बिछुड़ जाते हैं।

उर्मिला का विरह ‘साकेत’ की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है। सीता राम के साथ वन को जाती है, परन्तु उर्मिला घर पर ही तपस्या करती हैं। उर्मिला की माता ने कहा था - ‘मिला न वन ही, न गेह ही तुझको।’

सीता राम के साथ जाती है, उर्मिला नहीं - 

उर्मिला की दशा इस समय प्रवत्स्यत्पतिका नारी की तरह हो गयी है, जिसका पति परदेश जा रहा हो और वह घर पर उसकी प्रतीक्षा कर रही हो, किन्तु वह सीता को राम के साथ जाते हुए देखकर अपने मन को समझाते हुए कहती है - ‘हे मन! तू प्रिय पथ का विध्न न बन।’ वह केवल ‘हाय!’ कहकर जमीन पर गिर जाती है। लक्ष्मण आँख बन्द कर लेते हैं। उस समय बरबस सीता के मुख से सुन पड़ता है - ‘आज भाग्य जो है मेरा, वह भी हुआ न ही तेरा’

विरहिणी उर्मिला -

उर्मिला वियोग में जलती रहती है, इस कारण शरीर पीला पड़ जाता है -

‘‘मुख काँति पड़ी पीली-पीली, आँखें अशांत नीली-नीली।

क्या हुआ यही वह कृशकाया, या उसकी शेष-सूक्ष्म छाया।’’

इस प्रकार उर्मिला का वियोग धीरे-धीरे बढ़ता है और सखियों के समझाने पर वह यही उत्तर देती है - ‘सब गया हाय आशा न गयी।’ उसे रात दिन यही चिन्ता सताती रहती है कि ‘वे कैसे रहते होंगें। धीरे-धीरे उसके हृदय में संतोष की भावना जाग्रत होती है -

‘‘आराध्य युग्म के सोने पर, निस्तब्ध निशा के होने पर,

तुम याद करोगे मुझे कभी तो बस फिर मैं पा चुकी सभी।’’

लक्ष्मण से क्षणिक मिलन -

चित्राकूट में लक्ष्मण से मिलन के समय उर्मिला कहती है - ‘‘मेरे उपवन में हरिण आज वनचारी, मैं बाँध न लूँगी तुम्हें तजो भय भारी।’’ इस बात को सुनकर लक्ष्मण उर्मिला के चरणों पर गिरते हुए कहते हैं -

‘‘गिर पड़े दौड़ सौमित्रा प्रिया-पदतल में,

वह भीग उठी प्रिय-चरण धरे दृग जल में।’’

लक्ष्मण यह अपने मन में जानते थे कि उर्मिला के साथ अन्याय हुआ है। वे कहते हैं -

‘‘वन में तनिक तपस्या करके बनने दो मुझको निज योग्य।

भाभी की भगिनी तुम मेरे अर्थ नहीं केवल उपभोग्य।।’’

उर्मिला इसका उत्तर देती हुई कहती हैं -

‘‘पर जिसमें सन्तोष तुम्हें हो मुझे उसी में है सन्तोष।’’

उर्मिला के विरह में सहज ज्वलनशील वेदना - उर्मिला विरह वेदना को प्यार करने लगती है क्योंकि इसके अतिरिक्त चारा ही क्या है? साथ ही उसे वेदना इसलिए प्रिय लगने लगी है, क्योंकि उसके कारण वह सदैव सजग बनी रहती है और समाधि में लीन रहती है, जिससे वह अपने अंतर्गत ही अपने प्रियतम एवं सम्पूर्ण जगत् का साक्षात्कार करती रहती है। उसे इस विरह वेदना में प्रिय का अपूर्व संयोग निरन्तर प्राप्त है। इसलिए जहाँ विरह उसके लिए भार-स्वरूप है, वहाँ उसके लिए आभार रूप भी है। यह विरह उसके लिए सुख और दुःख, अपकार और उपकार, विस्मृति और स्मृति आदि, सभी परस्पर विरोधी बातों का प्रदान करने वाला भी बन गया है, इसलिए उसे अब सर्वत्रा विरह दिखायी देता है और सभी प्राणी विरहजन्य प्रेम-विह्नल जान पड़ते हैं। उसकी विरह वेदना ने उसे दुःखकातर बना दिया है और वह किसी को पीड़ित देखना पसंद नहीं करती। उसमें सहज ज्वलनशील वेदना है -

‘‘मानस-मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप।

जलती-सी उस विरह में, बनी आरती आप।।’’

ग्रहस्थ-जीवन की मर्यादा का परिपालन करना -

उर्मिला पर्णकुटी में न रहते हुए भी परिवार की सीमा में बद्ध प्रेम-बंदिनी है। वह रसोई बनाने में लीन होकर अपना दुःख कम करना चाहती है, परन्तु रसोई का भी आनन्द जाता रहा, क्योंकि वह हँस-हँसकर अब किसे खिलाये? अब तो उसके भाग्य में रोना ही शेष रह गया है। इसलिए वह कहती है -

‘‘बनाती रसोई, सभी को खिलाती, इसी काम से आज मैं तृप्ति पाती।

रहा किन्तु मेरे लिये एक रोना, खिलाऊँ किसे मैं अलोना सलोना।।’’

इसलिये वह प्रोषितपतिकाओं को निमंत्राण देने तथा उन्हें प्रेमपूर्वक साथ ले आने का आग्रह करती हुई अपनी सखी से कहती है -

‘‘प्रोषितपतिकाएँ हों जितनी, सखी उन्हें निमंत्राण दे आ,

समदुःखिनी मिले तो दुःख बँटे, जा, प्रणय पुरस्कार ले आ।’’

इसके आगे अपनी सखी से दीपक के जलाने का निषेध करती हुई कहती है -

‘‘दीपक-संग शलभ भी, जला न सखी, जीत सत्व से तम को,

क्या देखना-दिखाना क्या करना है, प्रकाश का हमको?’’

उर्मिला को दिन-रात काटना मुश्किल है। कोई तो कुछ बोकर फिर उसे काटा करता है, कोई सोकर ही दिन काट देता है, परन्तु वह क्या करे?

इस प्रकार, उर्मिला का सहज मानव-रूप अपनी गुण-गरिमा और भाव-दुर्बलताओं के संयोग से अति आकर्षक बन पड़ा है। वह गुप्त जी की नारी-भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति है।


साकेत


प्र.6. निम्नलिखित अवतरण की ससंदर्भ व्याख्या कीजिये।       

1. मझे फूल मत मारो।

मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।

होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,

मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।

नहीं भोगिनी यह मंै कोई, जो तुम जाल पसारो,

बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह-यह हरनेत्रा निहारो!

रूप-दर्प कन्दर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,

लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!                                                 (2015)

उ. प्रसंग - यह गीत प्रसिद्ध राम भक्त एवं राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के ‘नवम सर्ग’ से उद्धृत है। उर्मिला अपने पति लक्ष्मण के वियोग में कामवासना से पीड़ित है। कामदेव के बाण फूलों के हैं। वह कामदेव को संबोधित करके कहती है।

व्याख्या - विरहिणी उर्मिला कामदेव को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हे कामदेव! तुम मुझे अपने फूलों के बाण मत मारो, अर्थात् मेरे मन में काम-भावनाएँ जगाकर मुझे पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न मत करो। मैं शक्तिहीन नारी हूँ, युवती होती हुई भी विरहिणी हूँ, अतः मेरी असहाय दशा देखकर मुझ पर कुछ तो कृपा करो। तुम उस बसंत ऋतु के मित्रा हो जो सबको सुख देता है, तुम स्वयं बुद्धिमान भी हो, इसलिए तुम्हें उचित-अनुचित का ज्ञान होना चाहिये। तुम मुझ पर भीषण विष न घोलो, अर्थात मुझे तुम जो यह भयंकर यातना दे रहे हो, तुम्हारे लिये यह कार्य सभी दृष्टियों से अनुचित है। यदि फिर भी तुम मुझे दुःख देते हो तो यह जान लो कि तुम मुझे व्यथित करने का जो प्रयत्न करोगे, तुम्हारा यह प्रयत्न असफल ही रहेगा। अच्छा यही है कि ऐसे प्रयत्न करने के लिए व्यर्थ श्रम तुम न करो। मैं कोई सांसारिक सुखों को भोगने की इच्छा करने वाली नारी अथवा साँपिन नहीं हूँ, जो तुम्हें अपना यह जाल फैलाने की आवश्यकता हो। कहने का भाव यह है कि तुम तो उन्हीं नारियों को दुःख देते हो, जो वासना के वशीभूत होती हैं। मैं तो वासना से बहुत दूर हूँ, अतः तुम्हें न तो मुझे पीड़ित करने का अधिकार है और न तुम मुझे पीड़ित कर सकते हो। इस पर भी यदि तुम स्वयं को शक्तिशाली समझते हो तो मेरे माथे पर लगे हुए इस सिंदूर के बिन्दु को देखो और इसे शिव का तीसरा नेत्रा समझो, और समझ लो कि जिस प्रकार शिव के तीसरे नेत्रा ने तुम्हें भस्म कर दिया था, उसी प्रकार यह मेरा सिन्दूर का बिन्दु भी तुम्हें भस्म कर देगा। हे कामदेव! यदि तुम्हें अपने रूप का घमण्ड है तो उसे मेरे पति के रूप पर न्योछावर कर दो, क्योंकि मेरे पति तुमसे बहुत अधिक सुन्दर हैं। यह मेरे चरणों की धूल लेकर उस रति के सिर पर डाल दो जो तुम्हारे भस्म होने पर भी जीवित रही और अपने रूप का गर्व करती रही। भाव यह है कि तुम्हारी पत्नी रति भी मेरे सामने अत्यन्त तुच्छ है, क्योंकि तुम्हारे भस्म होने की भी उसने तनिक चिंता नहीं की तथा अपने रूप यौवन पर इठलाती हुई जीवित रही। उसने पत्नी-धर्म को कलंकित किया जबकि मैं पत्नी-धर्म की रक्षा के लिए पल-पल जल और गल रही हूँ।

विशेष - अलंकार - मुझे-मत-मारो, बाला-वियोगिनी-विचारो, मधु-मीत-मदन, गाल-गारो, विकलता-विफलता, बल-बिन्दु, नेत्रा-निहारो, पति-पर, धूलि-धारा में अनुप्रास, मैं अबला-बाला, वियोगिनी में विशेषणों का सभिप्राय प्रयोग होने से परिकरांकुर, नारी के प्रसिद्ध उपमान रति का अपमान होने से तो यह मेरी........ धारा में- व्यतिरेक, भोगिनी में- श्लेष तथा दर्प-कन्दर्प में- सभंगपदयमक तथा यह-वह में- वीप्सा-अलंकार है। पटु-कटु, विकलता-विफलता में ध्वनिसाम्य है।


2. हम राज्य के लिए मरते हैं।

सच्चा राज्य परन्तु हमारे कृषक ही करते हैं!

जिनके खेतों में है अन्न,

कौन अधिक उनसे सम्पन्न?

पत्नी-सहित विचरते हैं वे, भव-वैभव भरते हैं,

हम राज्य के लिए मरते हैं।                                                               (2015)

शब्दार्थ - मरते हैं = दुखी होते हैं। सम्पन्न = धनी। भव-वैभव = संसार के ऐश्वर्य।

प्रसंग - गीत की ये भावपूर्ण पंक्तियाँ प्रसिद्ध रामभक्त एवं राष्ट्रकवि की पदवी धारण करने वाले मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के ‘नवम सर्ग’ से उद्धृत हैं। राज्य के कारण गृह-कलह से दुःखी उर्मिला किसानों की प्रशंसा करती हुई कहती है।

व्याख्या - हमें यह अभिमान है कि हम राजा हैं, हम राज्य पाकर भी परेशान रहते हैं, पर सच बात यह है कि वास्तविक राज्य हमारे किसान ही करते हैं। जिनके खेतों में अन्न उपजता है, उनसे अधिक धनी राज्य कौन हो सकता है? किसान अपनी पत्नी को लेकर स्वतंत्राता से बाहर घूमते हैं और सांसारिक ऐश्वर्य को बढा़ते हैं। एक हम हैं जो केवल इस अभिमान को लेकर परेशान हो रहे हैं कि हमारे पास राज्य है।

विशेष - अलंकार - कृषक-करते, वे-वैभव, भव-भरते में अनुप्रास, पत्नी सहित में सहोक्ति, कौन अधिक उनसे सम्पन्न में काकुवक्रोति तथा भव-वैभव में सभंगपदयमक अलंकार है। विचरते-भरते में ध्वनिसाम्य है।


3. पूछी थी सुकाल-दशा मैंने आज देवर से -

कैसी हुई उपज कपास, ईख, धान की?

बोले - इस बार देवी, देखने में भूमि पर,

दुगनी दया सी हुई इन्द्र भगवान की।

पूछा यही मैंने एक ग्राम से तो कृषकों ने,

अन्न, गुड़ गोरस की वृद्धि ही बखान की,

किन्तु ‘स्वाद कैसा है, न जानें, इस वर्ष हाय!’

यह कह रोई एक अबला किसान की।                       (2011)

उ. शब्दार्थ - सुकाल = फसल का अच्छा होना, अच्छा समय। देवर = शत्राुघ्न।

प्रसंग - यह छन्द मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के ‘नवम् सर्ग’ से अवतरित है। उर्मिला अपनी सखी को इस वर्ष की कृषि उपज के विषय में बता रही है।

व्याख्या - हे सखी! आज मैंने अपने देवर शत्राुघ्न से पूछा कि इस बार फसल की दशा कैसी है? खेतों में कपास, ईख और धान कैसे उपजे हैं? उन्होंने उत्तर देते हुए कहा कि देखने से तो लगता है कि इस वर्ष इन्द्रदेव ने दूनी कृपा की है अर्थात् पिछले वर्षों की तुलना में इस वर्ष जल की अधिक वर्षा होने से दुगुनी उपज हुई है। उर्मिला ने यही प्रश्न जब एक गाँव में जाकर पूछा, तो वहाँ के किसानों ने भी यही कहा कि इस बार अन्न, गुड़ और दूध-दही खूब हुआ है। लेकिन ठीक उसी समय एक किसान की स्त्राी कह उठी कि यह सब होने पर भी, जब हम इन वस्तुओं को खाने-पीने बैठते हैं तो लगता है, उनमें पहले जैसा स्वाद ही नहीं रह गया है। ऐसा कहने के उपरान्त उनकी आँखों में सहसा आँसू भर आये।  

विशेष - अलंकार - दशा-देवर, देवी-देखन, दुगुनी-दया, गुड़-गोरस, वृद्धि बखान, किन्तु-कैसे किसान में अनुप्रास तथा कैसी हुई .... ध्यान की, तथा न जाने स्वाद कैसा है में प्रश्न, फसल का अनेक रूप में वर्णन होने से पूरे छन्द में उल्लेख अलंकार है।


4. सखि, मैं भव-कानन में निकली

बनके इसकी वह एक कली,

खिलते खिलते जिससे मिलने

उड़ आ पहँुचा हिल हेम-अली।

मुसकाकर आलि, लिया उसको,

लौं ये कौन बयार चली

‘पथ देख जियो’ कह गूजँ यहाँ

किस ओर गया वह छोड़ छली?                                              (2010)

उ. शब्दार्थ - भव-कानन = संसार रूपी वन। हेम-अली = सुनहरी भँवरा। आलि = हे सखी। बयार चली = हवा चली, गति बदली।

प्रसंग - यह छन्द राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के महाकाव्य ‘साकेत’ के ‘नवम् सर्ग’ से उद्धृत है। वियोगिनी उर्मिला अपनी सखी से अपने जीवन का सांकेतिक वर्णन करती हुई कहती है -

व्याख्या - हे सखि! मैं संसार-रूपी वन में वह कली बनकर निकली थी, जिसके खिलते ही, जिससे प्रेमपूवर्क मिलने के लिए एक सुनहरा भौंरा उड़कर आ पहँुचा था। हे सखि! जब तक मैंने उसको मुस्कुराकर अपनाया, तब तक न जाने कैसी हवा चली, न जाने कैसी गति बदल गई कि वह छली भँवरा मुझसे यह कहकर कि ‘पति देखकर जीवित रहना’ न जाने किस ओर उड़ गया।

भौंरे के माध्यम से उर्मिला अपने ही जीवन का वर्णन कर रही है। उसके कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे ही उसने यौवन में पदार्पण किया, उसे पति-रूप में सुन्दर लक्ष्मण प्राप्त हुए। वह अपने प्रियतम से मन भरकर प्रेम भी न कर पाई थी कि उन्हें वनवास मिल गया और अब मैं उनकी प्रतीक्षा करती हुई जीवित हूँ।

विशेष - अलंकार - कानन-कली, हिल-हेम, लिया-लौं, कह-किस, छोड़-छली में अनुप्रास, भव-कानन - में रूपक, खिलते-खिलते में पुनरूक्तिप्रकाश, हेम-अली में केवल उपमान का भाव और उपमेय का अभाव होने से रूपकातिशयोक्ति, यहाँ प्रस्तुत से अप्रस्तुत का बोध होने से अन्योक्ति तथा किस ओर गया एवं कौन बयार चली में प्रश्न अलंकार है।


5. आई हूँ सशोक मैं अशोक आज तेरे तले,

आती है तुझे क्या हाय! सुध उस बात की।

प्रिय ने कहा था - ‘प्रिये, पहले ही फूला यह,

भीति जो थी इसको तुम्हारे पदाघात की।’

देवी उन कान्ता सती शान्ता को सुलक्ष कर,

वक्ष भर मैंने भी हँसी यों अकस्मात की -

‘भूलते हो नाथ, फूल फूलते ये कैसे, यदि

ननद न देती प्रीति पद-जलजात की!’                                                            (2011)

उ. शब्दार्थ - सशोक = शोक से युक्त, खिन्नमन। भीति = भय, डर, आशंका। पदाघात = पद ़ आघात = पद-प्रहार, चरण का स्पर्श।

प्रसंग - यह छंद वियोगिनी उर्मिला का कथन अशोक वृक्ष के प्रति है तथा इसे मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘साकेत’ महाकाव्य के ‘नवम सर्ग’ से अवतरित किया गया है।

व्याख्या - हे अशोक! आज मंै शोकयुक्त होकर तेरे नीचे खड़ी हूँ। क्या तुझे यह बात याद है जब मेरे प्रियतम ने मजाक करते हुए मुझसे कहा था - प्रिये! इस वृक्ष को इस बात का भय था कि तुम इस पर किसी दिन पदाघात करोगी, अतः यह उससे पहले ही फूल गया। उसका जो उत्तर मैंने दिया था, वह भी तुझे स्मरण होगा। मैंने तुरन्त ही उनकी सुन्दर एवं पतिव्रता बहन शांता को लक्ष्य करते हुए हँसी में भरकर कहा था, हे नाथ बात तुम्हारी ठीक है, पर कारण तुमने भूल से गलत बताया है। यदि हमारी ननद अपने चरण-कमल से इसे प्यार के साथ स्पर्श न करतीं तो इस पर ये फूल कभी न खिलते। तात्पर्य यह है कि आपकी बहन भी तो नारी तथा युवती है। क्या यह अशोक वृक्ष उनके चरण की चोट से नहीं खिल सकता अर्थात् पुष्पयुक्त नहीं हो सकता?

विशेष - अलंकार - तेरे-तले, सशोक-सुधि, प्रिय-प्रिये, पहले-पदाघात, सती-शांता-सुलख, फूल-फलते, प्रीति-पद, जल-जात में अनुप्रास, अशोक में श्लेष, आती है ..... बात की में प्र्रश्न, पद जलजात में रूपक अलंकार है। अशोक का मानवीकरण किया गया है। सशोक-अशोक, कांता-शांता सुलभ-वृक्ष, कर-भर में ध्वनिसाम्य है।

6. दोनों ओर प्रेम पलता है।

सखि, पतंगा भी जलता है हाय! दीपक भी जलता है।

सीस हिलाकर दीपक कहता -

बन्धु! वृथा ही तू क्यों दहता?

पर पतंगा पड़कर ही रहता।

कितनी विहलता है।

दोनों ओर प्रेम पलता है।                                                                (2018)

प्रसंग - गीत की ये भावपूर्ण पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा विरचित महाकाव्य ‘साकेत’ के ‘नवम सर्ग’ से उद्धृत हैं। दीपक और पतंगे-दोनों में प्रेम की कल्पना करती हुई उर्मिला अपनी सखी से कहती है -

व्याख्या - विरहिणी उर्मिला अपनी सखी से कहती है कि हे सखी। यद्यपि दीपक जलता है, पर उसके जलने में भी जीवन की लाली है, अर्थात वह जलकर दूसरों को प्रकाश देता रहता है। इसके विपरीत पतंगे की भाग्य-लिपि काली ही बनी रहती है - वह जलकर व्यर्थ ही मर जाता है, अपने बलिदान से दूसरों का कुछ भी उपकार नहीं कर पाता। इसमें किसका वश चलता है, अर्थात् कोई भी कुछ नहीं कर सकता। उर्मिला के कहने का भाव यह है कि जलने की सार्थकता तभी है, जब उससे दूसरों का भी किसी प्रकार उपकार हो।

विशेष - (1) अलंकार - किन्तु काली, प्रेम-पतला में अनुप्रास तथा जीवन की लाली, भाग्य लिपि में रूपक अलंकार है। पतंगा और दीपक-दोनों का मानवीकरण किया गया है।

(2) इन पंक्तियों में उर्मिला की आत्मग्लानि निहित है, क्योंकि शलभ की भाँति वह जल तो रही है, पर अपनी जलन से किसी का उपकार नहीं कर पा रही है।

(3) पतंगा भाग्यहीन है, इस कथन से गुप्तजी का भाग्यवाद में विश्वास प्रकट होता है।