A.U. B.A. Ist Year Hindi I Ch.1 ( मैथिलीशरण गुप्त) - 2

 प्र.3. ‘साकेत’ के नवम् सर्ग के पठित अंश के आधार पर गुप्त जी के प्रकृति चित्राण की विशेषताएँ लिखिये।
अन्य सम्बन्धित प्रश्न -
प्र. ‘साकेत’ के नवम् सर्ग के प्रकृति चित्राण की नवीनताओं की विशद समीक्षा कीजिये।        (2009)
उ. मनुष्य और प्रकृति का सनातन सम्बन्ध है। ईश्वर ने पहले प्रकृति की रचना की, उसके पश्चात् मनुष्य का निर्माण किया। मनुष्य ने जबसे होश सँभाला है, तभी से वह प्रकृति की शोभा देखकर मुग्ध होता रहा है। ऋग्वेद एवं आदिकाव्य बाल्मीकि रामायण में प्रकृति का मनोहारी वर्णन मिलता है। आदिकाल से लेकर आधुनिक-काल तक के कवियों ने किसी-न-किसी रूप में प्रकृति की शोभा का वर्णन किया है। महाकाव्य के लक्षणों में प्रकृति-दर्शन की भी गणना की गयी है।
‘साकेत’ महाकाव्य है। प्रकृति-वर्णन के अभाव में यह महाकाव्य कैसे बन सकता था? ‘साकेत’ रामकथा पर
आधारित है। राम का अधिकांश समय वन में प्रकृति के सान्निध्य में व्यतीत हुआ। इस कारण भी साकेत में
प्रकृति-वर्णन को पर्याप्त स्थान मिलना चाहिये था। गुप्त जी ने ‘साकेत’ की रचना छायावादी युग में की है।
छायावादी युग प्रकृति-चित्राण के लिए विख्यात है। इस आधार पर भी साकेत में प्रकृति-वर्णन पर्याप्त मात्रा
में होना चाहिये।
गुप्त जी ने अपने महाकाव्य ‘साकेत’ में प्रकृति-वर्णन अनेक रूपों में किया है। वैसे तो पूरा ‘साकेत’ ही
प्रकृति-वर्णनों से भरा पड़ा है, पर नवम् सर्ग इस दृष्टि से सर्वोत्तम है। ‘साकेत’ के नवम् सर्ग का प्रकृति-वर्णन
में अधिक महत्व है, साथ ही उत््रकृष्ट एवं प्रभावशाली भी है।
आलोचकों की मान्यताओं के आधार पर हिन्दी कविता में प्र्रकृति-वर्णन के निम्न रूप प्राप्त होते हैं -
(1) आलम्बन रूप, (2) उद्दीपन रूप, (3) अलंकार रूप, (4) उपदेश ग्रहण रूप,  (5) मानवीकरण रूप,
(6) ईश्वरीय सत्ता की अभिव्यक्ति का रूप।
‘साकेत’ में और विशेष रूप से ‘साकेत’ के नव्म सर्ग में निम्न सभी रूपों में प्रकृति-वर्णन मिलता है -
(1) आलम्बन के रूप में प्रकृति-वर्णन - हिन्दी कविता में अधिकांश प्रकृति का वर्णन उद्दीपन के रूप में उपलब्ध है। आश्रय की रसानुभूति का आधार तो नायिका होती है। प्रकृति केवल रस को उद्दीप्त करती है। जहाँ स्वयं प्रकृति ही आश्रय की रसानुभूति का कारण बनती है। वह प्रकृति-वर्णन आलम्बन रूप में माना जाता है। ‘साकेत’ के नवम् सर्ग का अधिकांश प्रकृति-वर्णन आलम्बन रूप में ही है। वियोगिनी उर्मिला ने प्रकृति को अपने साथ हँसते-रोते अनेक रूपों में देखा है। उसी का वर्णन गुप्तजी ने किया है। उर्मिला अपने क्रीड़ा उद्यान में उच्च पर्वत को देखकर कह उठती है -

‘‘तू निर्झर का डाल दुकूल,

लेकर कन्दमूल फल-फूल।

स्वागतार्थ सबके अनुकूल,

  खड़ा खोल दरियों के द्वार,

ओ गौरव गिरि-उच्च उदार!

(2) उद्दीपन रूप में - जहाँ प्रकृति का वर्णन उद्दीपन रूप में होता है, वहाँ कवि अथवा कोई पात्रा विशेष प्रकृति से स्पष्ट रूप से प्रभावित नहीं होता। प्रकृति केवल उसके भावों को उद्दीप्त करती है। ‘साकेत’ के नवम् सर्ग में विरहिणी उर्मिला की वियोग-व्यथा को प्रकृति ने अनेक रूपों में उद्दीप्त किया है। वियोग के क्षणों में उर्मिला को अपने संयोग जीवन के सुखद क्षणों की स्मृति हो आती है। जब वर्षा के मादक वातावरण ने उसके श्रृंगार भाव को उद्दीप्त करके नृत्य करने पर विवश किया था। उर्मिला अपना यह संस्मरण सखी को सुनाती हुई कहती है -

‘‘मैं निज अलिन्द में खड़ी थी सखि! एक रात,

रिमझिम बूँदें पड़ती थीं घटा छाई थी।

गमक रहा था केतकी का गन्ध चारों ओर,

झिल्ली झनकार यही मेरे मन भाई थी।

करने लगी थी अनुकरण मैं स्व-नूपुरों से,

चंचला थी चमकी घनाली फिर आई थी।

चौंक देखा मैंने ‘चुप कोने में खड़े थे प्रिय’

माई! मुख लज्जा उसी छाती में छिपायी थी।’’

(3) अलंकार योजना के रूप में - 
अलंकार सदैव से काव्य की शोभा रहे हैं। रस को काव्य की आत्मा मानने वाले आचार्यों ने भी अलंकारों का महत्व स्वीकार किया है। लगभग सभी अर्थालंकार साम्य अथवा वैषम्य पर आधारित हैं। कवियों ने सदैव प्रकृति-वर्णन के प्रसंग में प्रायः समानता के लिए प्रकृति का स्मरण किया है। ‘साकेत’ में इस प्रकार के स्थलों की कमी नहीं है। चित्राकूट में निवास कर रही सीता के सौन्दर्य का वर्णन करते समय गुप्त जी ने अलंकार के रूप में प्रकृति का स्मरण किया है -

‘‘कंधे ढककर कच छहर रहे थे उनके,

रक्षक तक्षक से लहर रहे थे उनके।

मुख धर्म बिन्दुमय ओस भरा अम्बुक-सा,

पर कहाँ कंटकित नाल सुपुलकित भुज-सा।’’

(4) उपदेश के रूप में प्रकृति-वर्णन - 
प्रकृति और मनुष्य का साथ चिरन्तन है। प्रकृति के कुछ रूप में यदि मनुष्य को अपने मनोभावों का साम्य प्रतीत होता है, प्रकृति के अनेक रूप मनुष्य को अनेक सारगर्भित उपदेश भी देते जान पड़ते हैं।

संसार परिवर्तशील है। उन्नति वाले की अवनति अवश्य होती है। भरे हुए को एक दिन खाली होना पड़ता है। संयोगिनी उर्मिला को वियोग का सामना करना पड़ रहा है। इसी प्रकार केे परिवर्तन का उपदेश ग्रीष्म ऋतु में जलहीन नदी उर्मिला को दे रही है -

गृहवापी कहती है -

‘‘भरी रही, रिक्त क्यों न अब हूँगी?

पंकज तुम्हें दिये हैं,

और किसे पंक वस्त्रा मैं दूँगी?’’

(5) मानवीकरण के रूप में प्रकृति-वर्णन - 
प्रकृति अथवा उसके किसी अंश का मानव के रूप में वर्णन करना ही मानवीकरण है। प्रकृति के मानवीकरण की भावना पाश्चात्य साहित्य की देन है। छायावादी कवि प्रकृति के मानवीकरण के लिए प्रसिद्ध हैं। गुप्त जी ने ‘साकेत’ में अनेक स्थानों पर प्रकृति का वर्णन मानवीकरण के रूप में किया है। वियोगिनी उर्मिला को प्रकृति के कण-कण में चेतना एवं मानव-रूप दृष्टिगोचर होता है। उर्मिला की सखी फूल तोड़ना चाहती है। उर्मिला लता का मानवीकरण करके लता को माता एवं पुष्प को उसकी सन्तान मानकर सखी से कहती है -

‘‘छोड़-छोड़, फूल मत तोड़, आली, देख तेरा,

हाथ लगते ही ये कैसे कुम्हलाये हैं?

कितना विनाश निज क्षणिक विनोद में है,

दुःखिनी लता के लाल आँसुओं से छाये हैं।

किन्तु नहीं, चुन ले सहर्ष खिले फूल सब,

रूप, गुण, गन्ध के जो तेरे मन भाये हैं।

जाये नहीं लाल लतिका ने झड़ने के लिए,

गौरव के सरों चढ़ने के लिए जाये हैं।’’

(6) ईश्वरीय सत्ता के रूप में - ‘साकेत’ में ईश्वरीय सत्ता के रूप में प्रकृति का वर्णन नहीं प्राप्त होता। वैसे ईश्वर निराकार रूप में प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। पर साकारोपासक गुप्त जी को अपने इष्टदेव के चरित्रा वर्णन में यह उचित प्रतीत नहीं हुआ होगा।
गुप्त जी के महाकाव्य ‘साकेत’ में ईश्वरीय सत्ता के रूप में चाहे प्रकृति-वर्णन उपलब्ध न होता हो, पर अन्य अनेक रूपों में प्रकृति-वर्णन की ‘साकेत’ में बहुलता है। ‘साकेत’ और विशेष रूप से उसके नवम् सर्ग का प्रकृति-वर्णन अत्यन्त मनोरम एवं वैविध्यपूर्ण है।


प्र.4. साकेत की आधुनिकता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।             (2016, 19)

उ. ‘साकेत’ की कथा का मूलाधार परम्परागत राम-कथा ही है, किन्तु गुप्तजी ने उसमें पर्याप्त परिवर्तन किये हैं। अपने युग की नवीन विचारधाराओं का गुप्त जी पर काफी प्रभाव पड़ा है। इस आधार पर ही गुप्त जी ने अपने काव्य को स्वरूप प्रदान किया है। इस कारण ‘साकेत’ में पर्याप्त आधुनिकता स्पष्ट होती है। श्री त्रिलोचन पाण्डेय ने ‘साकेत’ की आधुनिकता के तत्वों का संकेत इस प्रकार किया है -

(1) बुद्धिवाद का प्रभाव (2) पात्रों का आधुनिकता रूप (3) मनोवैज्ञानिकता (4) पीठिका देना (5) समसामयिक प्रभाव (6) राष्ट्रीयता (7) नारी-सम्बन्धी दृष्टिकोण (8) मर्यादित श्रृंगार वर्णन (9) कला का उद्देश्य (10) शैलीगत नवीनता एवं अन्य प्रसंग।

(1) बुद्धिवाद का प्रभाव - 

बुद्धिवाद आधुनिक काल की प्रमुख विशेषता है। बौद्धिकता के कारण आज का मनुष्य दैवी घटनाओं पर अविश्वास करता है। इस कारण ‘साकेत’ के सभी पात्रा मानवीय प्रतीत होते हैं। श्रीराम गुप्त जी के आराध्य हैं, पर आधुनिक बुद्धिवादी मानव को गुप्त जी अपना मत स्वीकृत करने के लिए विवश नहीं करते। वह राम से ही पूछते हैं -

राम तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या?

विश्व में रमे हुए नहीं, सभी कहीं नहीं हो क्या?

बुद्धिवाद के कारण ही सीता, उर्मिला आदि का इस महाकाव्य में अधिक मुखर एवं वाक्पटु चित्रित की गई है। आधुनिक युग के बुद्धिवादी मानव की भाँति ‘साकेत’ का प्रत्येक पात्रा अपने अधिकारों के प्रति सजग है।

(2) पात्रों का आधुनिक रूप - 

‘साकेत’ की दूसरी नवीनता यह है कि इसके प्रमुख पात्रा - उर्मिला, लक्ष्मण आदि राजपरिवार के सदस्य होकर भी जन-जीवन से सम्पृक्त हैं। उर्मिला अपनी विरह-व्यथा में भी जनता का ध्यान रखती है, पशु-पक्षियों के प्रति सहानुभूति दिखाती है। सीता भी यहाँ देवी और माता न होकर साधारण पत्नी के रूप में ही अपनी कुटिया में राजभवन का अनुभव करती है।

राम भी ‘साकेत’ में साधारण मानव के रूप में चित्रित किये गये हैं। गुप्त जी ने तुलसी की भाँति उनमें पूर्ण देवत्व की स्थापना नहीं की है। गुप्त जी के राम आदर्श मनुष्य हैं, जो इस पृथ्वी पर स्वर्ग की स्थापना करने आये हैं -

संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।

‘साकेत’ में पात्रों से सम्बन्धित एक अन्य आधुनिकता यह है कि राम-काव्य में प्रथम बार उर्मिला को प्रधान पात्रा के पद पर आसीन किया गया है। भरत भी यहाँ तुलसी के ‘मानस’ की अपेक्षा मानवीय गुणों से अधिक मण्डित हैं।

‘साकेत’ में कैकेयी के तामसी रूप की सात्विकता भी व्यक्त की गयी है।

(3) मनोवैज्ञानिकता - 

गुप्त जी ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर अपने पात्रों का चरित्रा-चित्राण किया है। ‘साकेत’ में कैकेयी के अन्तर्द्वन्द्व का सुन्दर चित्राण हुआ है। वैसे कैकेयी को सभी पुत्रा भरत के समान प्रिय थे पर जब मन्थरा कहती है -

भरत से सुत पर भी सन्देह,

बुलाया तक न उन्हें जो गेह।

तो कैकेयी ईर्ष्या की भावना से भर जाती है, उसकी मातृ-भावना चीत्कार कर उठती है और वह अपने पति महाराज दशरथ से पूर्व प्रदत्त दो वरदान माँग लेती है। जब भरत ही उसे फटकारता है तो वह आत्मग्लानी से भर उठती है और चित्राकूट की सभा में पश्चाताप प्रकट करती है।

‘साकेत’ के नवम् सर्ग में उर्मिला के विरह-वर्णन में गुप्त जी ने मनोविज्ञान के आधार पर उर्मिला की मानसिक उथल-पुथल को बड़े मार्मिक शब्दों में चित्रित किया है। उसके प्रेम और कर्तव्य के मध्य जो द्वन्द्व हुआ है, उसकी इस सर्ग में मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।

(4) पीठिका देना - 

अगर बाद में घटित होने वाली घटनाओं की सूचना किसी संकेत से पहले दे दी जाती है तो उस घटना का प्रभाव प्रबल हो जाता है। ‘साकेत’ में गुप्त जी ने इस पद्धति को अपनाया है। उन्हें ‘साकेत’ में उर्मिला के विरह का अंकन करना था, इस कारण उन्होंने प्रथम सर्ग के अन्त में ही यह लिखा -

इसके आगे? विदा विशेष,

हुए दम्पति फिर अनिमेष।

किन्तु जहाँ है मनोवियोग,

वहाँ कहाँ का विरह-वियोग? 

(5) समसामयिक प्रभाव - 

गुप्त जी के ‘साकेत’ पर समसामयिक विचारधाराओं और आन्दोलनों के प्रभाव के कारण भी एक नवीनता का समावेश हुआ है। गाँधीवादी सिद्धान्त, सत्य, अहिंसा, धार्मिक आचरण, समानता और सेवा-भाव को काव्य में पर्याप्त स्थान मिला है।

दशरथ जी सत्य पर सब कुछ वार देने को तैयार हैं तो श्रीराम किसी भी स्वार्थवश अपने धर्म से विमुख नहीं होना चाहते। अयोध्यावासियों को सम्बोधित करते हुए राम कहते हैं -

मैं स्वधर्म से विमुख नहीं हँूगा कभी, 

इसलिए तुम मुझे चाहते हो सभी।

पर मेरा यह विरह-विशेष विलोककर,

करो न अनुचित कर्म धर्म-पथ रोककर।

‘साकेत’ की देशभक्ति भी गाँधी जी की देशभक्ति के समान है। अन्याय और अधर्म गुप्त जी को सहन नहीं - ‘पर वह मेरा देश नहीं जो करे दूसरों पर अन्याय’। गाँधी जी की अहिंसा का भी ‘साकेत’ पर पूर्ण प्रभाव पड़ा है। उसके युद्धोत्साह में दमन के स्थान पर समर्पण एवं त्याग की भावना है। सीता चित्राकूट में गाँधी जी की चर्खा-योजना का प्रचार करती प्रतीत हो रही हैं।

साम्यवादी विचारधारा का भी गुप्त जी पर विशेष प्रभाव पड़ा है। ‘साकेत’ में सभी वर्गों के व्यक्तियों को समानाधिकार प्राप्त है। शत्राुघ्न सामाजिक जीवन के विकास की चर्चा करते हैं। निम्नवर्गीय गुहराज भी श्रीराम के आलिंगन का अधिकारी है। 

(6) राष्ट्रीयता -

राष्ट्रीयता की भावना का आधुनिक युग में विशेष महत्व है। इस राष्ट्रीय भावना का ‘साकेत’ पर भी प्रभाव पड़ा है। ‘साकेत’ में राम-रावण-युद्ध को राष्ट्रीय युद्ध का रूप दिया गया है। सीता-हरण को भी यहाँ भारत-लक्ष्मी का हरण माना गया है -

हाय! मरण से नहीं किन्तु जीवन से भीता,

राक्षसियों से घिरी हमारी देवी सीता।

बन्दीगृह में बाट जोहती खड़ी हुई है,

व्याध-जाल में राजहंसिनी पड़ी हुई है।

(7) नारी-सम्बन्धी दृष्टिकोण -

गुप्त जी का युग नारी-जागरण का युग था। सभी ओर नारी-स्वातन्त्रय, नारी-शिक्षा और नारी के अधिकारों की माँग सुनाई देती थी। गुप्त जी ने अपने काव्यों से नारी को महत्ता प्रदान की। गुप्त जी के ‘साकेत’ की नारियाँ पुरूष की अर्धांगिनी के साथ-साथ सहयोगिनी भी हैं। घर में यदि वे कुलवधू हैं तो आवश्यकतानुसार उनका रणचण्डी का रूप भी दिखाई देता है। प्रेम, त्याग, सेवा सभी क्षेत्रों में वे अतुलनीय हैं। 

‘साकेत’ की नारी पत्नी-रूप में पुरूष की अर्धांगिनी है, जिसे उर्मिला के रूप में पाकर लक्ष्मण कहते हैं - 

‘कल्पवल्ली-सी तुम्हीं चलती हुई,

बाँटती हो दिव्य-फल फलती हुई।

पत्नी-रूप में ही कहीं वह सीता बनकर राम के हृदय में प्रतिष्ठित है तो कहीं मांडवी और श्रुतकीर्ति के रूप में भरत-शत्राुघ्न से उचित सम्मान प्राप्त कर रही है। माँ के रूप में भी ‘साकेत’ की कौशल्या और सुमित्रा आदर्श नारियाँ हैं। कैकेयी ने राजपरिवार में षड्यन्त्रा रचा, किन्तु अपने दोष को स्वीकार करके वह भी ‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई’ के रूप में साकेतवासियों से प्रतिष्ठा प्राप्त करती है।

‘साकेत’ की नारी त्यागमयी, सेवा-भाव से ओतप्रोत और कर्त्तव्यपरायणा है। उर्मिला भू (पृथ्वी) पर स्वर्ग बरसाने के लिए लक्ष्मण का चौदह वर्षों का वियोग सहन कर लेती है।

आधुनिक नारी वाक्पटु है। ‘साकेत’ में उर्मिला और कैकेयी भी मुखर हैं। गुप्त जी की नारियों में साहस, शौर्य, शील, संयम और सेवा-भाव का अटूट सामंजस्य है।

(8) मर्यादित श्रृंगार वर्णन -

श्रृंगार रसराज है, इस कारण सभी कवियों ने अपने काव्यों में इस रस का समावेश किया है। ‘साकेत’ में भी श्रृंगार-रस का संयमित चित्राण है। उिर्र्मला ‘साकेत’ का केन्द्र-बिन्दु है, अतः उसका नख-शिख-चित्राण होना आवश्यक था। गुप्त जी ने उर्मिला के सौन्दर्य का अंकन किया तो है, साथ ही मर्यादित भी रहे हैं -

अरूण-पट पहने हुए आह्लाद में,

कौन यह बाला खड़ी प्रासाद में?

प्रकट-मूर्तिमती उषा ही तो नहीं?

कांति की किरणें उजाला कर रहीं।

‘साकेत’ के प्रथम सर्ग में उर्मिला-लक्ष्मण के हास-परिहास के मध्य श्रृंगार के संयोग पक्ष की छटा देखी जा सकती है, किन्तु यहाँ भी कवि ने मर्यादा की रक्षा की है।

(9) कला का उद्देश्य -

साहित्य क्षेत्रा में यह प्रश्न बहुत विवादित है कि ‘कला, कला के लिए’ है अथवा ‘कला जीवन के लिए’ है। कुछ विद्वान कला को कला के लिए मानते हैं और कुछ कला का ध्येय जीवन स्वीकार करते हैं। गुप्त जी को कला की सार्थकता तभी स्वीकार्य है, जब वह जीवन से सम्बन्धित हो। उनका मत है -

मानते हैं जो कला के अर्थ ही,

स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही।

गुप्त जी की इसी मान्यता के कारण ‘साकेत’ में आदर्श जीवन की अभिव्यक्ति हुई है। ‘साकेत’ के उद्देश्य विषय में कहा जा सकता है कि मानवतावादी जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा ही काव्य का उद्देश्य है। ‘साकेत’ की सभी घटनाएँ, परिस्थितियाँ और चरित्रा इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक हैं। ‘साकेत’ में राम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं, जो इस पृथ्वी पर ‘आर्यों का आदर्श’ बताने  आये हैं। उर्मिला उत्सर्गमयी नारी है। भरत शील के, सीता परिश्रम की और लक्ष्मण अतुलित शौर्य के प्रतिनिधि हैं। ‘साकेत’ के सभी पात्रा आदर्श जीवन और समाज की स्थापना करना चाहते हैं।

इस प्रकार ‘साकेत’ की कला का महान् उद्देश्य कला जीवन के लिए है। इस काव्य में गुप्त जी भारतीय संस्कृति के दिव्य गुणों और उच्चादर्शों की व्याख्या करने में सफल हुए हैं।

(10) शैलीगत नवीनता -

‘साकेत’ की शैली भी आधुनिक है। अब तक के सभी राम-काव्य अवधी में लिखे गये थे, परन्तु गुप्त जी ने अपने ‘साकेत’ का सृजन खड़ी बोली में किया है। ‘साकेत’ की इस भाषा सम्बन्धी नवीनता के सम्बन्ध में नन्ददुलारे वाजपेयी ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं - साकेत की प्रमुख आधुनिकता है, उसमें ब्रजभाषा और पुरानी हिन्दी के स्थान पर नई खड़ी बोली का प्रयोग। ‘प्रियप्रवास’ की खड़ीबोली पर संस्कृत का पूरा आच्छादन है और उसके छन्द, समास आदि संस्कृत से ही ग्रहण किये हैं। ‘साकेत’ की खड़ीबोली अधिक स्वतंत्रा है। उस पर संस्कृत का अनावश्यक बोझ नहीं है और न उसके छंदों और समासदिकों में संस्कृत की पद्धति स्वीकार की गयी है। खड़ीबोली के विकास की दृष्टि से वह ‘प्रिय-प्रवास’ की अपेक्षा अधिक आधुनिक कृति है।’’