A.U. B.A. Hindi I - Ch.3. (सूर्य कान्त त्रिपाठी - ‘निराला’) - 6

 अधिवास


प्र.6.     निम्नलिखित अवतरण की ससंदर्भ व्याख्या कीजिये।

1. मैंने ‘मैं’ शैली अपनायी,

देखा दुखी एक निज भाई।

दुख की छाया पड़ी हृदय में मेरे,

कर उमड़ वेदना आयी।

उसके निकट गया मैं धाय,

लगाया उसे गले से हाय!

फँसा माया में हँू निरूपाय 

कहो, कैसे फिर गति रूक जाय?                                             (2015)

उ. शब्दार्थ - ‘मैं’ - शैली = आत्म-कथात्मक या व्यक्तिवादी शैली। धाय = दौड़कर। निरूपाय = उपाय - रहित, विवश।

संदर्भ व प्रसंग - ये पंक्तियाँ निराला जी की कविता ‘अधिवास’ में से ली गई हैं। ‘राग-विराग’ में इस कविता का संकलन निराला की प्रथम दौर की रचना ‘परिमल’ में से लेकर किया गया है। इस कविता में कवि ने दीन-दुखियों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त की है। कविता में आने वाले व्यक्ति-तत्व की ओर भी संकेत किया है। पुराने को छोड़ नया अपनाने की बात कही है। अपने स्थान के बारे में प्रश्न करता हुआ कवि कहता है -

व्याख्या - अपनी गतिशीलता में नया मोड़ आने की ओर संकेत करते हुए कवि कह रहा है कि जीवन में व्याप्त दुःख-सुख की चेतना को अपनी बनाकर व्यक्त करने के लिए ही मैंने अपने काव्योें में ‘मैं’ की अर्थात् व्यक्तिवादी या आत्म-कथात्मक शैली (उत्तम पुरूष की शैली) अपना ली है। इसका कारण स्पष्ट करते हुए कवि आगे कहता है - जब मैंने अपने ही एक मानव भाई को दुखी देखा, तो उसके दुख की छाया मेरे हृदय में भी पड़ी अर्थात् मुझे अपने अन्तर में भी उसी जैसा दुःख झँाकता दिखाई दिया, परिणामस्वरूप मेरी वेदनाएँ झटपट उमड़ कर करूण गीतों के रूप में फूट पड़ी। मैं दौड़ा-दौड़ा उस दुःखी व्यक्ति के पास गया और उसे गले से लगा लिया। अर्थात् उसके दुःख को अपना दुःख बना लिया। मानव होने के नाते मानवीय ममता में मैं निरूपाय-सा होकर फँस गया हूँ। ऐसी स्थिति में तुम ही कहो कि मेरे जीवन और भाव-लोक की गति किस प्रकार से रूक सकती है? अर्थात किसी भी प्रकार का अवरोध मुझे सह्य नहीं है।

विशेष - छायावादी काव्य में विद्यमान व्यक्ति-चेतना की व्यापकता और कारण इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है।    


वह तोड़ती पत्थर


प्र.7. निम्नलिखित अवतरण की ससंदर्भ व्याख्या कीजिये।

1. देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोयी नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -

‘‘मैं तोड़ती पत्थर!’’                                                       (2013, 17)                               

उ. संदर्भ व प्रसंग -

                प्रस्तुत पंक्तियाँ कविवर निराला की एक अचोड़ अद्भुत रचना ‘वह तोड़ती पत्थर’  से ली गयी है। सन् 1935 में छायावादी पर्यावरण में रची गई इस प्रगतिवादी कविता को कवि के जीवन और छायावादी साहित्य यात्रा का मील का पत्थर स्वीकार किया जाता है। इस कविता में छायावादी कवि ने बीच चौराहों में खड़े होकर श्रमिक जन-मन की अपराजय ‘करूणा’ का मार्मिक चित्राण किया है। पत्थर तोड़ने वाली श्रमिक महिला के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए कवि कह रहा है -

व्याख्या - उस पत्थर तोड़ने वाली ने जब मुझे अपनी ओर देखते हुए देखा तो अपने कर्म-रत मन के तार टूट जाने पर उसने सामने वाले भवन की तरफ भी एक बार देखा। उसने देखा कि चारों तरफ देखने वाला अन्य कोई भी नहीं है। इसको बाद उसने मुझे ऐसी दृष्टि से देखा जो अनवरत मार खाने के बाद भी रो नहीं सकी थी अर्थात निरन्तर गर्मी, कठोर परिश्रम-संघर्ष में रहते हुए भी उसकी दृष्टि में पराजय का भाव नहीं था।

उसकी उस अपराजेय दृष्टि से मैंने कर्म-संघर्षमय जीवन की जो झंकार सुनी, वह कभी सजीली वीणा के सजीले तारों से भी नहीं सुनी थी। एक क्षण के बाद वह सुघड़ श्रमिक-महिला जैसे काँप गई। इससे उसके माथे से पसीने की बूँद ढुलक कर नीचे गिर पड़ी। पर इसके तत्क्षण  बाद ही उसने अपने कार्य में पुनः निरत होते हुए जैसे मुझसे कहा - हाँ, मैं जीवन के सुन्दर-सुखद भवनों को बनाने के लिए निरन्तर पत्थर ही तोड़े जा रही हूँ। भाव यह है कि मुझे केवल निर्माण का अधिकार है, अपने ही निर्माण के उपभोग का नहीं।

विशेष - पद्य-भाग के उदाहरण में, उत्प्रेक्षा और उपमा अलंकार है। ‘मार खाई रोई नहीं’ पद में जो व्यंजना है उसका उदाहरण अन्यत्रा नहीं मिलता।