A.U. B.A. Hindi I - Ch.3. (सूर्य कान्त त्रिपाठी - ‘निराला’) - 5

 बादल राग


प्र.5. निम्नलिखित अवतरण की ससंदर्भ व्याख्या कीजिये।

1. तिरती है समीर-सागर पर 

अस्थिर सुख पर दुख की छाया -

जग के दग्ध हृदय पर

निर्दय विप्लव की प्लावित माया -

यह तेरी रण-तरी

भरी आकांक्षाओं से,

घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर

उर में पृथ्वी के, आशाओं से

नवजीवन की, ऊँँचा कर सिर,

ताके रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल                                              (2016)

उ. संदर्भ व प्रसंग - प्रस्तुत काव्यधारा प्रगतिवादी काव्यांश के प्रतिनिधि कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘बादल राग’ से अवतरित है। यहाँ आम आदमी के दुख से त्रास्त कवि, दल का आह्नान क्रांति के रूप में कर रहा है। विप्लव-रव से छोटे ही शोभा पाते हंै। क्रंाति जहाँ मजदूरों में सनसनी उत्पन्न करती है, वहीं निर्धन कृषकों को उससे नई आशा-आकंाक्षाएँ मिलती हैं।

व्याख्या - कवि कहता है - हे क्रांतिदूत रूपी बादल! आकाश में तुम ऐसे मँडराते  रहते हो। जैसे पवनरूपी सागर पर कोई नौका तैर रही हो। यह वैसे ही दिखाई दे रही है जैसे अस्थिर सुख पर दुःख की छाया मँडराती रहती है अर्थात् मानव-जीवन के सुख क्षणिक और अस्थायी हैं जिन पर दुःख की काली छाया मँडराती रहती है। संसार के दुःखों से दग्ध (जले हुए) हृदयों पर निष्ठुर क्रांति का मायावी विस्तार भी इसी प्रकार फैला हुआ है। दुःखी जनों को तुम्हारी इस युद्ध नौका में अपनी मनवंाछित वस्तुएँ भरी प्रतीत होती हैं अर्थात् क्रांति के बादलों के साथ दुःखी लोगों की इच्छाएँ जुड़ी रहती हैं।

हे क्रांति के प्रतीक बादल! तुम्हारी गर्जना को सुनकर पृथ्वी के गर्भ में सोए (छिपे) बीज अंकुरित होने लगते हंै अर्थात् जब दुःखी जनता को क्रांति की गूंज सुनाई पड़ती है तब उनके हृदयों में सोई-बुझी आकंाक्षाओं के अंकुर पुनः उगते प्रतीत होने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि उन्हें एक नया जीवन प्राप्त होगा। अतः वे सिर उठाकर बार-बार तुम्हारी ओर ताकने लगते हैं। क्रांति की गर्जना से ही दलितों-पीड़ितों के मन में एक नया विश्वास जाग्रत होने लगता है।

विशेषः 1. बादल को क्रांति-दूत के रूप में चित्रित किया गया है।

2. प्रगतिवादी काव्य का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है।

3. ‘समीर-सागर’में रूपक अलंकार है।

4. ‘सुप्त अंकुर’ दलित वर्ग का प्रतीक है।

5. मुक्त छंद का प्रयोग हुआ है।


2. जीर्ण बाहु, शीर्ण शरीर,

तुझे बुलाता कृषक अधीर,

ऐ विल्पव के वीर!

चूस लिया है उसका सार,

हाड़ मात्रा ही है आधार,

ऐ जीवन के पारावार!                                               (2010, 14, 18)                                  

उ. शब्दार्थ -

जीर्ण = पुरानी, शक्तिहीन, निर्बल। शीर्ण = शिथिल, थका हुआ, जर्जर समान। अधीर = दुःखी, व्याकुल। जीवन = जल जीवन।

संदर्भ व प्रसंग - पूर्ववत

व्याख्या - हे विप्लव के बादल क्रान्ति के वीर सन्देशवाहक किसान तेरे आगमन का सन्देश पाकर प्रसन्न हो उठा है, वह अपने शक्तिहीन निर्बल हाथों को हिला-हिला कर शिथिल और जर्जर शरीर लिये व्याकुल होकर तुझे बुला रहा है। उसका शरीर अस्थिपंजर मात्रा रह गया है क्योंकि इन धनिकों ने उसके समस्त जीवन रस (खून) को चूस लिया है अब तो वह केवल हड्डियों का ढाँचा मात्रा रह गया है। ऐ बादल! तुझ में ही उस निर्धन, शक्तिहीन, असहाय किसान की आशाएँ निहित है क्योंकि तू अपने अन्दर वर्षा का जल छिपाये है जो उस किसान के लिए नये जीवन, चेतना और आशा का प्रतीक है। बादल बरसेगा, प्यासी धरती तृप्त होगी, धरती में स्थित बीज अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होंगे, धरती हरियाली से भर उठेगी, चारों ओर हरियाली तथा फसलों की लहलहाट देखकर वह किसान खुशी से झूम उठेगा क्योंकि उसका श्रम सार्थक होगा, उसकी आशाएँ पूरी होंगी अतएव ऐ बादल तू तो उस किसान का प्राणदाता और जीवनदाता है इसलिए वह तुझे अधीर होकर बुला रहा है अर्थात् ऐ क्रान्ति के दूत तेरे आगमन और गर्जन का इंतजार किसान जैसा शोषित और दलित वर्ग ही करता है, धनी और पँूजीपति तो उससे आतंकित रहता है। शोषण और दमन से आक्रान्त कृषक के लिए ऐ बादल तू ही आशा और भविष्य का झिलमिलाता दीप है, उसके जीवन में छाये हुए अन्धकार को मिटाने के लिए तू प्रकाश की किरण है।   

विशेषताएं - (1) जीर्ण-शीर्ण में छेकानुप्रास अलंकार तथा बादल का मानवीकरण। पदमैत्राी और संस्कृत समाज पद्धति का सुन्दर निर्वाह है। ध्वन्यात्मकता इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता है।     (2) साम्यवादी चिन्तन तथा काव्य में प्रगतिवादी प्रवृत्ति मुखर है। किसान के प्रति गहरी सहानुभूति व्यक्त है तो पूँजीपति को खून चूसने वाला कहकर उसके प्रति घृणा उत्पन्न करने की चेष्टा की गयी है। घृणा एवं द्वेष के भाव जगाकर वर्ग-संघर्ष की प्रेरणा देना ही साम्यवाद का लक्ष्य है।


3. अट्टालिका नहीं है रे

आतंक-भवन,

सदा पंक पर ही होता

जल-विप्लव-प्लावन,

क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से

सदा छलकता नीर,

रोग-शोक में भी हँसता है

शैशव का सुकुमार शरीर।

रूद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष,

अंगना-अंग से लिपटे भी

आतंक-अंक पर काँप रहे हैं

धनी, वज्र-गर्जन से बादल!

त्रास्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं।                                     (2009, 19)

उ. शब्दार्थ - अट्टालिका = बड़े और ऊँचे महल, विलास तथा रंगमहल। आतंक भवन = भय को उत्पन्न करने वाले भवन। पंक = कीचड़। जल-विप्लव प्लावन = प्रलय जल का उमड़ता हुआ समूह चारों ओर फैल जाता है। क्षुद्र = छोटा।

संदर्भ व प्रसंग - पूवर्वत

व्याख्या - हे क्रान्ति दूत बादल! तेरे आगमन के फलस्वरूप ये अट्टालिकाएँ जो धनिकों के भोग-विलास का रंगमहल तथा खेल-क्रीड़ा स्थान थीं अब नहीं रह गईं, प्रत्युत ये अट्टालिकाएँ भय और आतंक का निवास-स्थान बन गई हैं अर्थात उनमें रहने वाले व्यक्ति अब राग-रंग भूल कर आतंकित हो उठे हैं। जल का उमड़ता हुआ समूह चारों ओर फैल तो जाता है लेकिन स्थिर होता है, कीचड़ भी कमल को उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। कीचड़ में खिलने वाले छोटे-छोटे कमल पुष्पों की पत्तियों और पंखुड़ियों पर से ही सदा निर्मल जल ढुलकता रहता है अर्थात् बादल का जीवन-दान ऊँचे महलों में रहने वालों के लिए नहीं होता है। उसका जल तो कीचड़ सदृश पद दलित सर्वहारा वर्ग के लिये होता है अथवा क्रान्ति के हुंकार से बडे़-बड़े महलों में रहने वाले पँूजीपति अपना साहस छोड़कर पहले अपने द्वारा क्षुद्र समझे जाने वाले लोगों के साथ मिलकर एकाकार हो रहे हैं जैसे कि वर्षा द्वारा गिरायी गयीं बड़ी अट्टालिकाएँ कीचड़ के साथ मिलकर एकाकार हो जाती हैं। भीषण जल-प्लावन के समय जिस प्रकार छोटे-छोटे कमल खिले रहते हैं उसी प्रकार समाज के तथाकथित छोटे लोग रोगों, दुःखों, गरीबी और अभावों से पीड़ित रहते हुए भी उसी प्रकार प्रसन्न बने रहते हैं जिस प्रकार कष्ट के समय भी बालकों की सुकुमारता अक्षुण्ण बनी रहती है। रोग, दुःख और पीड़ा में भी जिस प्रकार सुकुमार शिशु सदैव प्रसन्न चित्त रहता है, बादलों के बरसने से छोटे-छोटे कमल जिस प्रकार आनन्दित होते हैं उसी प्रकार क्रान्ति के आगमन पर छोटे, नगण्य और समाज का सर्वहारा वर्ग ही प्रसन्न होता है, प्रासादों में रहने वाले धनी नहीं।

धनी और पूँजीपतियों के खजाने में समाज की सम्पत्ति का बहुत बड़ा भाग बन्द और रूका हुआ है तथापि उन्हें सन्तोष नहीं तथा ‘और-और’ की लालसा बनी रहती है। फलस्वरूप देश और समाज की सम्पत्ति अधिक से अधिक बटोरने तथा हथियाने की चालें ही सोचते रहते हैं। उन पूँजीपतियों की मानसिक शान्ति भंग हो गयी है, भयाक्रान्त हो गये हैं। ऐसे पूँजीपति वीरांगनाओं के शरीर से लिपटे, भोग्या स्त्रिायों की गोद में मुख छिपाये मानों क्रान्तिकारियों से रक्षा पाने के लिए धोखा दे रहे हों। क्योंकि भारतीय परम्परा के अनुसार बालक, वृद्ध और नारी पर प्रहार नहीं किया जाता अतएव इन नारियों को ही उन्होंने अपना कवच बना रखा है तथापि भय से थर-थर काँप रहे हैं, संवेग रहित हो गये हैं। क्रान्ति रूपी बादल का वज्र सदृश कठोर गर्जन उन्हें निरन्तर आतंकित किये रहता है। भयभीत हो उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर ली हैं और उनके मुख से आवाज नहीं निकल रही है।

विशेषता - (1) शैशव शरीर, अंगना अंग, आतंक अंक में छेकानुप्रास, अट्टालिका नहीं . . . .आतंक भवन में अपद्दुति, आतंक भवन, शैशव का शरीर में विशेषण विपर्यय, आतंक अंक में रूपक अलंकार तथा मानवीकरण (2) रोग-शोक, रूद्ध-क्षुब्ध, कोश-तोष तथा आतंक अंक में पदमैत्राी। (3) प्रतीकात्मक शैली-पंक, जलज सर्वहारा वर्ग के लिये प्रयुक्त हुआ है। (4) उपर्युक्त छन्द में निराला पर साम्यवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति के साथ-साथ पूँजीपति के प्रति घृणा, आक्रोश और क्षोभ स्पष्ट है।