A.U. B.A. Hindi I - Ch.3. (सूर्य कान्त त्रिपाठी - ‘निराला’) - 4

 प्र.4. निराला की तोड़ती पत्थर के काव्य सौन्दर्य पर प्रकाश डालिये।       (2010)

अन्य सम्बन्धित प्रश्न -

प्र. निराला को दी गयी ‘महाप्राण’ उपाधि का औचित्य सिद्ध कीजिये।       (2009)

उ. महाप्राण निराला का अन्तः बाह्य व्यक्तित्व पूर्णतया जीवन्त-काव्य था, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं किया जा सकता। उनके व्यक्तित्व को हम सुख-दुःख से समन्वित सहज गम्भीर शाश्वत अनुभूति भी कह सकते हंै। उसमें व्यापकता, विभिन्नता और विविधता थी। तभी तो उनके व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए श्रीमती महादेवी वर्मा ने कहा था - ‘‘उनका व्यक्तित्व उनके काव्य से कम निराला नहीं है। वह अत्यंत जटिल और बहुत से विरोधों का सामंजस्य है।’’ विरोध और सामंजस्यों का मूल कारण उनकी अपनी पारिवारिक, आर्थिक और साहित्य के ठेकेदारों द्वारा उत्पादित विषम परिस्थितियाँ ही थीं। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक नार्मन की एक व्यक्तित्व सम्बन्धी उक्ति के अनुसार हम निराला जी के व्यक्तित्व के बारे में भी कह सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व संयोजन, सम्मिलन, विलयन और संगठित पूर्णता है, वहाँ स्पष्टतः कविवर निराला के व्यक्तित्व में जहाँ अनेक विधि सुसंयोजनाएँ हैं, वहाँ व्यक्तित्व के विघटन और विलयन-सम्बन्धी अनेक प्रकार के स्पष्ट विरोधाभास भी विद्यमान हैं। इस प्रकार इस निराली प्रतिभा वाले कवि का व्यक्तित्व बड़ा ही विचित्रा, सजीव किन्तु प्रेरणादायक है। उसमें अनेक प्रकार के बाह्य विरोधाभास तो मिल जायेंगे, पर आन्तरिक ऐक्य की अन्ति कहीं भी स्खलित नहीं हो पाती, यह एक चौंका देने वाली बात है।

जन्म और पालन - 

इस निराले व्यक्तित्व वाले कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म वसन्त पंचमी के दिन, 1886 में बंगाल प्रान्त के मेदिनीपुर जिले में बसे महिषादल राज्य में हुआ था। निराला जी के पूर्वज और पिता अवध, उत्तर प्रदेश में बसे गढ़शिला नामक एक गाँव के निवासी थे। इनके पिता जीविका की खोज में महिषादल राज्य में पहँुच सिपाहियों के कमाण्डर जमादार बन गये। पिता का नाम पं. रामसहाय त्रिपाठी था। पिता ने दो विवाह किये थे। निरालाजी का जन्म दूसरी पत्नी से हुआ था। अभी तीन ही वर्ष के थे कि माँ के स्नेह से वंचित होकर पिता के सैनिकों जैसे कठोर अनुशासन में पलने-बढ़ने लगे। यद्यपि शैशव में निराला जी को आर्थिक प्रभावों से तो जूझना नहीं पड़ा पर पिता के कठोर स्वभाव का शिकार इन्हें सामान्य बातों के लिए भी अनेकशः होना पड़ा। मातृ-स्नेह से वंचित और कठोर स्वभाव वाले पिता ने मिलकर शैशव के सुकुमार क्षणों में ही निराला जी को अन्तर्मुखी बना दिया। साथ ही निराला जी एक ओर अत्यधिक हठी स्वभाव वाले बन गये, तो दूसरी ओर अत्यधिक लापरवाह भी हो गये। एक ओर यदि उनकी चेतना वज्रवत कठोर हो गयी तो दूसरी ओर फूलों से भी कोमल होकर करूणा-सरिता उनके अन्तराल में अहर्निश प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार परस्पर विरोधी स्थितियों और चेतनाओं में कविवर निराला अदम्य बनकर रह गये। इस अदम्यता का त्याग उन्होंने आजीवन नहीं किया।

शिक्षा-दीक्षा -

अपने पिता से निराला को कठोर ताड़ना के साथ स्नेह भी मिला। आर्थिक दृष्टि से पिता उन्हें किसी प्रकार के अभाव की अनुभूति नहीं होने दी। पिता ने बालक की शिक्षा-दिक्षा की भी सुलभ साधनों और स्थितियों के अनुरूप उचित व्यवस्था की। क्योंकि महिषादल राज्य बंगला-भाषी प्रदेश था, कविवर निराला का जन्म और लालन-पालन वहीं पर हुआ था, अतः उनकी आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था भी बंगला भाषा में ही हुई। यह भी मान्यता है कि निराला के कवित्वमय व्यक्तित्व का प्रथम स्वर भी बंगला-भाषा में ही व्यक्त हुआ था। हिन्दी-काव्य जगत में तो वे विवाह के बाद अपनी पत्नी की प्रेरणा से आये थे। खैर, बंगला भाषा के पठन-अध्ययन के साथ-साथ बालक निराला संस्कृत भाषा और साहित्य का भी अध्ययन करते रहे। इसके साथ ही वे अपने प्रान्त बैसवाड़ा (अवध) से आये लोगों के सम्पर्क में आकर अपनी मातृ-भाषा बैसवाड़ी (अवधी) भी सीखते रहे।

इसी अवस्था में उन्होंने सामान्यतः हिन्दी-भाषा का अध्ययन भी आरम्भ कर दिया था। हिन्दी-भाषा अध्ययन के दो ही साधन और माध्यम उन दिनों इन्हें उपलब्ध थे। एक तो थी रामायण और दूसरी उस युग की सर्वाधिक प्रमुख, लोकप्रिय हिन्दी-मासिक-पत्रिका ‘सरस्वती’। इन्हीं के माध्यम से इन्होंने हिन्दी भाषा भी सीखी थी। शिक्षा के साथ-साथ निराला जी को व्यायाम करने और कुश्ती लड़ने का भी बहुत व्यसन था। वे घुड़सवारी भी करते थे। फिर उन्हें सैनिक वातावरण प्राप्त था, अतः स्वास्थ्य-सम्बन्धी बातों से वे न केवल परिचित हो गये थे, बल्कि उन्होंने स्वास्थ्य-रक्षा की समस्त बातों और शिक्षाओं को अपना जीवन-अंग बना लिया था। इस प्रकार पिता की हठीली मार और व्यायाम आदि के कारण उनका व्यक्तित्व बड़ा ही गठीला-सजीला होकर उभर रहा था।

विवाह और परवर्ती जीवन - 

तत्कालीन परम्परा के कारण निराला जी का विवाह भी केवल चौदह वर्ष की आयु में हो गया था। इनकी पत्नी का नाम श्रीमती मनोहरा देवी था। वे उत्तर प्रदेश के जिला फतेहपुर में बसे चाँदपुर नामक स्थान की निवासिनी थीं। पत्नी की प्रेरणा से निश्चय ही निराला के व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों को ही नवविकास एवं परिवेश प्राप्त हो सका। हिन्दी-काव्य रचना के क्षेत्रा में निराला अपनी पत्नी की प्ररेणा से ही अवतरित हुए थे। इस बारे में डॉ. बच्चनसिंह लिखते हैं - ‘‘श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी को ‘निराला’ बनाने में उनकी पत्नी का उतना ही हाथ है जितना कालिदास को कालिदास बनाने में विद्योत्तमा का और तुलसीदास को तुलसीदास बनाने में रत्नावली का।’’ निश्चय ही कविवर निराला ने ‘तुलसीदास’ जैसी जो सशक्त सर्जना हिन्दी-साहित्य को प्रदान की है, उसका मूल प्रेरणा-स्त्रोत श्रीमती मनोहरा देवी को स्वीकारा जा सकता है। कविवर निराला ने अपने काव्य ग्रन्थ ‘गीतिका’ की भूमिका में स्पष्ट किया है कि अब उन्हें हिन्दी-भाषा और साहित्य को लेकर अपनी पत्नी की तुलना में दीनता का भाव ग्रसित करने लगा, तो वे ‘सरस्वती’ मासिक की प्रतियाँ लेकर उसके आधार पर काव्यपद साधना करने लगे। इस अनवरत साधना के परिणामस्वरूप ही निराला  जी बाद में आचार्य शुक्ल जैसे साहित्य महारथियों और गांधी जी जैसे महापुरूषों को चुनौती देने का साहस कर सके।

अभी निराला जी जब केवल 21 वर्ष के ही थे कि मनोहरादेवी उन्हें चिरवियोग का घाव देकर इस संसार की असारता से किनारा कर गइंर्। इस बात से वे अत्यधिक दुखी रहा करते थे। 

पत्नी की इस आकस्मिक मृत्यु ने निराला के समूचे व्यक्तित्व को झकझोर कर रख दिया। यहीं से उनके व्यक्तित्व में पुनः उद्धतता और लापरवाही के तत्वों का समावेश होने लगा। उनके व्यक्तित्व के विघटन की कहानी भी यहीं से आरम्भ होती है। उनके स्वभाव की सोई उग्रता भी फिर से जाग उठी। पुत्राी सरोज और एक पुत्रा के रहते हुए भी निराला जी के मन की सुख शान्ति का जैसे अन्त हो जाता था। इस प्रकार उनका जीवन असमाप्त पीड़ाओं की करूण गाथा बनता गया। पत्नी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद क्रमशः उनके पिता और चाचा का स्वर्गवास हो गया। इस कारण अब सारे परिवार की देखभाल का उत्तरदायित्व भी इन्हीं पर आ पड़ा। यों महिषादल राज्य से इन्हें हर प्रकार की सहायता मिल सकती थी, पर अपने स्वभाव की उग्रता और उद्धतता के कारण वे वहाँ टिक न सके। अतः एक भयावह आर्थिक वैषम्य का दौर उनके जीवन में आरम्भ हो गया।

व्यथित और निराश निराला आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनवरत संघर्ष करने लगे। ‘सरस्वती’ और ‘प्रभा’ जैसी पत्रिकाओं से उनकी रचनाएँ सखेद, अप्रकाशित लौट आती।   इस प्रकार आर्थिक प्रकोप अनवरत बढ़ता ही गया। खर्च चलाने के लिए घर के बरतन बेचे जाने लगे। समूचे परिवार का उपासे या चने चबाकर रह जाना तो एक सामान्य बात बन गई थी। इतने पर भी अपने निश्चित पथ से निराला का व्यक्तित्व डोला नहीं। श्रीमती महादेवी वर्मा के शब्दों में - अविराम संघर्ष और निरन्तर विरोध का सामना करने से जो एक आत्मनिष्ठा उत्पन्न हो गई है, उसी का परिचय हम उनकी दृप्त दृष्टि में पाते हैं।’’

जीवन में आ गये अभावों से संघर्ष करने के लिए निराला जी कुछ दिनों तक विवेकानन्द-मिशन के पत्रा ‘समन्वय’ में सम्पादक बने रहे। ‘मतवाला’ का संपादन भी किया। वास्तव में इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वास्तविक मूल्यांकन इसी पत्रा के प्रकाशन-काल में ही होना आरम्भ हो सका। कृतित्व के विरोध और समर्थन के उग्रभाव भी यहीं से सामने आने लगे। पर वह अपने अविरत पथ पर अडिग रहे। पर आर्थिक विपन्नता के सामने उनका चारा भी तो नहीं चल पा रहा था। धन-प्राप्ति के लिए लिखना वह अपना उद्देश्य नहीं मानते थे। खुशामद, भीख और मिन्नत-समाजवाद के वे कट्टर विरोधी थे। अतः अर्थ की विपन्नता इस सीमा तक बढ़ी कि वे अपनी बेटी सरोज और बेटे रामकृष्ण का पालन कर पाने में भी असमर्थ हो गये। उन्हें इनको ननिहाल भेजना पड़ा। निराला जी का दुःख इस बात से और भी बढ़ गया था कि उनके विगत बीस वर्षों के साथी भी उनकी मुक्त काव्य-धारा के कारण विरोधियों की पंक्ति में जा बैठे थे।  इस व्यथा को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया कि ‘‘बीस वर्षों एक साथ काम करके भी मैं अभी अपने मित्रों की ममता का पात्रा नहीं बन सका।’’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने अपनी मानसिक व्यथा यह कहकर व्यक्त की कि - ‘‘दूसरों पर भी मैं बैर नहीं रखता, पर न जाने क्यों मुझे दूसरे से बैर नहीं मिला।’’ एक युग-प्रवर्तक सर्जना की अन्तर्व्यथा इससे बढ़कर और क्या हो सकती है?

निष्कर्ष - उपरोक्त सारे विवेचन का निष्कर्ष श्री दीनानाथ शरण के शब्दों में इस प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं - ‘‘लम्बा, चौड़ा, पुष्ट, बलिष्ठ शरीर, लम्बे-लम्बे केश और प्रभावपूर्ण मुख-मण्डल, सब मिलाकर उनका व्यक्तित्व बड़ा ही सामर्थ्यवान है (था)। उनमें जीवन की कठिन कारकाओं के संघर्ष करने की अपार शक्ति है (थी)। उनके स्वर में सिंह का-सा गर्जन है (था)। केशव जैसे अगाध पाण्डित्य और कबीर के समान निर्भीक आत्माभिमान-दोनों के एक साथ दर्शन निराला के व्यक्तित्व में होते हैं (थे)। अंग्रेजी कवि शैले के समान वे स्वतन्त्रा प्रकृति के हैं (थे)। मिल्टन और आर्नल्ड की तरह विद्वान् कलाकार। संगीत में माहिर रूचि है (थी)। पाक-शास्त्रा भी निष्णात हैं (थे)।’’

इस प्रकार उनका अन्तः बाह्य व्यक्तित्व सप्राण था और अपना उदाहरण आप ही था। उनके व्यक्तित्व विश्लेषण के सम्बन्ध में डॉ. इन्द्रनाथ मदान के विचारों को भी यहाँ उद्धृत कर देना उचित रहेगा। वे लिखते हैं - ...... कवि की वाणी, कलाकार के साथ, पहलवान की छाती और फिलॉस्फर के पैर - कुछ ऐसा था निराला जी का निराला व्यक्तित्व।’’ उसमें एक फक्कड़ की अलमस्ती थी और एक ध्यान-योगी की निस्पृहता भी। हमारे विचार में निराला जी के व्यक्तित्व में हिमालय की उच्चता भी थी और सागर की गहरायी भी। बसन्त का मधुहास भी था तो पतझड़ का रूदन भी, पावस का करूण स्राव भी था तो ग्रीष्म का उद्दण्ड उत्ताप भी। शिशिर की ठिठुरन भी और शरद का कलहास भी था। ..... क्या नहीं था उस अनोखे व्यक्तित्व में? वह इतना उदात्त और महान था कि आज तक उसकी बुलन्दियों को अन्य कोई भी छू पाने में समर्थ नहीं हो सका है।

हा! हन्त!! 15 अक्टूबर, सन 1661 को क्रूर काल ने हम से अदमनीय महान् व्यक्तित्व को भौतिक दृष्टि से सदा-सर्वदा के लिए छीन लिया। पर अपने महान् कृतित्व के रूप में वह पावन और उदात्त व्यक्तित्व निश्चय ही चिर अमर है।