A.U. B.A. Hindi I - Ch.3. (सूर्य कान्त त्रिपाठी - ‘निराला’) -2

 प्र.2. निराला की प्रगतिशीलता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।                                  (2014)

अन्य सम्बन्धित प्रश्न -

प्र. निराला की प्रगतिशील चेतना पर प्रकाश डालिये।                                          (2012)

प्र. छायावादी कवि के रूप में निराला की प्रगतिशील चेतना को रेखांकित कीजिये।                (2016)

प्र. निराला की प्रगतिशील चेतना को स्पष्ट कीजिये।                                          (2018)

उ. निराला चूँकि शुरू से ही विद्रोही कवि रहे हैं फलस्वरूप उनकी मानसिक स्थिति ऐसी रही कि उनकी भावात्मक ही नहीं, क्रियात्मक सहानुभूति भी समाज के शोषित और पीड़ित वर्ग के प्रति रही है। क्रियात्मक सहानुभूति का प्रकाशन उनके जीवन की अनेक घटनाओं से ही हो जाता है - जैसे नया शाल ठंड से ठिठुरते नग्न भिक्षुक को पहना देना और स्वयं जड़ाते हुए चले जाना, कहीं से धन प्राप्त होने पर जरूरतमन्दों की सहायता करना, बच्चों को जलेबी खिलाना, और जिसकी चर्चाएँ आज भी इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले तथा अन्य मुहल्लों में और लखनऊ की बस्तियों में गरीबों और असहायों के मुख से सुनी जा सकती हैं। उनके काव्य में स्वाभाविक तौर पर सामाजिक जीवन के वैषम्यों का आकलन देखा जा सकता है। उनकी जिन रचनाओं में समाज की इन विषमताओं के प्रति प्रतिक्रिया का आकलन तथा शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन किया गया है उन्हें उनका प्रगतिशील काव्य कहा जा सकता है। प्रगति काव्य की शैली में सामाजिक वास्तविकता के प्रति सहानुभूति आदर्श होता है। क्योंकि वह यथार्थवादी पद्धति पर सामाजिक तथ्यों के उद्घाटन पर बल देती है, उनमें सामाजिक और प्रचारात्मक उद्देश्य निहित होता है, उसकी प्रतिक्रिया में ध्वंसात्मक या सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणाएँ हैं, उसके साधन के स्वरूप में व्यंग, नारे, वीभत्स चित्रा, कारूणिक दृश्योद्घाटन, गरीबी, भूख, असमानता आदि तत्व निहित होते हैं, तथा उनका लक्ष्य अर्थ समानता के आधार पर मानवीय सौख्य के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करना होता है।

रूढ़ियों का विरोध एवं नवीन परम्पराओं का प्रवर्तन कवि की प्रवृत्ति के अनुकूल है क्योंकि प्रगतिवादी चिन्तन में ही वह अपने मनोभावों की छाया का दर्शन करते हैं। इसलिए समाज के सामूहिक हित-साधन की दृष्टि से उन्होंने प्रगतिवाद को अपनाया। इस प्रकार की यथार्थवादी शैली में लिखी गयी रचना में सामाजिक और आर्थिक चेतना की अभिव्यक्ति वर्ग-वैषम्य का चित्राण है। अब हम प्रगतिवाद के उन विशिष्ट तत्वों के आधार पर कवि की रचनाओं का आकलन करेंगे  जिन्हें हम प्रगतिशील रचनाएं कहते हैं।

(1) रूढ़ि का विरोध - 

क्रान्तिकारी भावनाओं से पूर्ण होने के कारण रूढ़ियों और परम्पराओं का अन्धानुकरण उनके स्वभाव के प्रतिकूल था। रूढ़िवाद के विरोध ने निराला को साहित्य में अनेक नवीन परम्पराओं का जन्मदाता बना दिया है जैसे छन्द विधान में मुक्त छन्द का प्रयोग। सामाजिक क्षेत्रा में भी उन्होंने रूढ़ियों का विरोध किया - 

वे कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,

खाकर पत्तल में कर छेद।

इनके कर कन्या, अर्थ खेद,

इस विषय-बेलि में विष ही फल,

यह दग्ध मरूस्थल-नहीं सुजल।

वास्तव में यदि देखा जाय तो, निराला जीवन भर रूढ़ियों, परम्पराओं और अन्ध-विश्वासों का विरोध ही करते रहे। अपनी संस्कृति के प्रति थोथा दम्भ भरने वाले लोगों को लथेड़ते हुए कवि ने स्वयं कहा है - ‘‘हजार वर्ष से सलाम ठोंकते-ठोंकते नाक में दम हो गया अभी संस्कृति लिए फिरते हैं। ऐसे लोग संसार की तरफ से आँखें बन्दकर अपने ही विवर के व्याघ्र बन बैठे रहते है, अपनी ही दिशा के ऊंट बन कर चलते हैं।’’ उन्होंने संकीर्णता को कभी स्वीकार नहीं किया है। 

(2) शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति -

शोषित और दुःखीजनों के प्रति घनीभूत सहानुभूति प्रदर्शन ‘प्रगतिवाद’ का प्रतिपाद्य विषय होता है। भिक्षुक, वह तोड़ती पत्थर, विधवा, दान आदि कविताओं में सामान्य पीड़ित जन को अपनी सहानुभूति देकर कवि उनके प्रति समाज में सहानुभूति जगाना चाहता है क्योंकि शोषितों का यथार्थ चित्राण निराला का प्रतिपाद्य रहा है। इस कोटि की कविता में कवि की संवेदना दलित की पक्षधर है। ‘दान’ कविता के भिखमंगों का यथार्थ चित्रा हमारे समाज की असलियत पर मार्मिक प्रहार करता है। ‘भिक्षुक’ कविता का भिखमंगा भी कम दयनीय नहीं है -

वह आता -

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता 

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक

चल रहा लकुटिया टेक

मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को

मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता।

निराला ने ‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता में एक मजदूरनी का बड़ा ही यथार्थ एवं मार्मिक चित्रा खींचा    है -

वह तोड़ती पत्थर

देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर

वह तोड़ती पत्थर 

नहीं छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार 

गुरु हथौड़ा हाथ

करती बार-बार प्रहार -

सामने तरु-मालिका, अट्टालिका, प्राकार।

भिक्षुक कौन-सा शाप ढो रहा है, कौन से पाप का फल उसे भुगतना पड़ रहा है - इस प्रश्न का उत्तर सदा ही मौन है। कवि इनकी मुक्ति के लिए अभिमन्यु जैसे वीर की तरह एकाकी लड़ना चाहता है। भिक्षुक के समान ही कवि दृष्टि इलाहाबाद की कड़ी धूप में सड़क पर पत्थर तोड़ने वाली नारी पर जाती है। एक ओर ऊँची अट्टालिकाएं हैं और इस नारी के लिए पेड़ की छाया भी नसीब नहीं है। कवि समाज के इस वैषम्य पर क्षुब्ध हो उठता है और फिर अपनी अभिजात भावधारा से मुक्ति पाकर कुकुरमुत्ते के मुख से व्यंग प्रस्तुत करता है। अब कवि अप्सरा, अलका, निरूपमा, लिली, ज्योतिमयी के बाल-जाल से अलग होता है और ‘देवी’ की पगली को अपनी वेदना देता है, ‘चतुरी चमार’ को जगाता है, ‘सुकुल की बीबी’ की सहायता करता है, ‘कुल्ली भाट’

की महत्ता स्थापित करता है, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की जिजीविषा के प्रति आदर व्यक्त करता है। अब महंगू, झिंगरू से जुड़ता है। 

(3) पूँजीपति के प्रति तीव्र घृणा - 

निराला की पैनी दृष्टि ने समाज के यथार्थ और नग्न रूप को देखा था तथा अपनी गुरबत में उसकी गरीबी को झेला और सहा था। उन्होंने ‘सहस्त्राब्दि’ में भारतीय समाज का बहुत ही सटीक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने कई कविताओं में वर्तमान सामाजिक शोषण का चित्रा खींचते हुए बनते हैं। इसका उल्लेखनीय उदाहरण उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कुकुरमुत्ता’ है। इस सशक्त कविता में कुकुरमुत्ता सर्वहारा या शोषित वर्ग का प्रतीक है और गुलाब पूँजीपति का पोषक है -

अबे सुन बे गुलाब। भूल मत जो पाई खुसबू रंगों आब।

खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट; आज पर इतराता है कैपिटलिस्ट।।

उपर्युक्त पंक्तियों में पूंजीपतियों के प्रति कवि के मन में कितनी तीव्र और गहन घृणा है कि वह कविता की भाषा में बोली या असाहित्यिक शब्दों का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकता। इन्होंने केवल अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया प्रत्युत पूँजीपतियों को बार-बार अपनी रचनाओं में चुनौती दी है, ललकारा है -

भेद कुल खुल जाय वह सूरत हमारे दिल में है।

देश को मिल जाय जो पूँजी तुम्हारे मिल में है।

(4) क्रान्ति का आह्वाहन - 

समाज का शोषण कैसे समाप्त हो उसके लिए प्रगतिवादी कवि एक ही उपचार जानता है - क्रान्ति। वह क्रान्ति चाहे अहिंसात्मक हो या हिंसात्मक। निराला का मन भी इस पूँजीवादी व्यवस्था, सभ्यता और शोषण से छटपटा रहा है। इससे मुक्ति का समाधान उनकी दृष्टि में भी क्रान्ति ही है इसलिए वह भी ‘बादल राग’, ‘आवाहन’ आदि कविताओं में क्रान्ति का आह्नान करते हैं।  

बादल राग कविता में बादल क्रान्ति का प्रतीक है और लघु पौधे शोषित वर्ग का। युगों से दलित और शोषित किसान हाड़ मात्रा रह गया है उसकी मुक्ति क्रान्ति के द्वारा ही हो सकती है। पराधीनता से मुक्ति के साथ सामाजिक जीवन में परिवर्तन लाना इस कविता की भावना है। ‘बादल-राग’ का विप्लवी रूप देखिये -

रूद्ध कोश है, क्षुब्ध तोष है

अंगना अंग से लिपटे भी

आतंक-अंक पर काँप रहे हैं  

धनी, वज्र गर्जन से बादल

त्रास्त नयन-मुख ढँाप रहे हैं।

(5) वेदना की विवृत्ति - 

                सामाजिक असमानताओं और विषमताओं को देखकर कवि का मन दुःखी हो जाता है। उसके मन में वेदना और निराशा के भाव भर जाते हैं। ये भाव व्यक्तिपरक और समाजपरक दोनों ही प्रकार के हैं। स्वयं निराला भी सारे जीवन संघर्ष ही करते रहे, आर्थिक कष्ट और सामाजिक यातना झेलते रहे। फलस्वरूप उसकी अभिव्यक्ति भी ‘मैं अकेला’, ‘स्नेह निर्झर बह गया है’, ‘मरण को जिसने वरा है’ जैसी कविताओं में हुई है -

मैं अकेला 

देखता हूँ आ रही

मेरे दिवस की संध्या बेला

(6) नारी का मांसल चित्रण - 

            प्रगतिवादी कवि एक ओर शोषित और दलित नारी के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करता है तो दूसरी ओर वह उसको भोग की सामग्री मानता है और यथार्थवादी वर्णन के नाम पर उसके मांसल शरीर का चित्राण भी करता है। छायावाद का सूक्ष्म और अरूण रूप प्रगतिवाद में स्थूल और मांसल बनकर हमारे सामने आता है। निराला की रचनाओं में भी कहीं-कहीं नारी के मांसल रूप का चित्राण है लेकिन छायावादी परम्परा के अनुरूप उनकी ऐन्द्रियता और अतिरंजना में भी एक प्रकार की गम्भीरता है। निराला के हृदय का आत्म निवेदन कहीं अपनी पत्नी के प्रति है, कहीं किसी प्रेयसी के प्रति और कहीं चिरंतन नर-नारी के भाव को ही उसने वाणी दी है। इनमें शरीर के सौन्दर्य का वर्णन है और मन के सौन्दर्य का भी। शारीरिक सुख का वर्णन ऐन्द्रियता का परिचायक भी है और अन्तःकरण की उमंग के चित्राण सूक्ष्म आनन्द के विधायक भी। ‘जूही की कली’, ‘स्मृति चुम्बन’, ‘प्रेयसी’, ‘गीतिका’ के कुछ गीत में नारी के सौन्दर्य का ऐन्द्रिक चित्राण है। जैसे - 

प्रिय कर कठिन उरोज-परस-कस, कसक-मसक गई चोली।

एक वसन रह गई मद हँस अधर-दशन अनबोली।।

‘वह तोड़ती पत्थर’ कविता में मजदूरिन के प्रति गहरी सहानुभूति प्रदर्शित करते समय भी निराला यह लिखना नहीं भूलते -

श्याम तन, भर बँधा यौवन। नत नयन प्रिय-कर्म रत मन।।

(7) उद्बोधन और देश-भक्ति - 

प्रगतिवादी कवि क्रान्ति में विश्वास करता है। क्रान्ति की दो दिशाएँ होती हैं - ध्वंस और नव-निमार्ण। प्रगतिवादी दोनों दिशाओं को अपनाता है। निराला ने भी दोनों दिशायें अपनायीं। ध्वंस की भेरी बजाते समय वह शिव और श्यामा (काली देवी) का आह्नान करता है। नव-निर्माण का स्वप्न देखते समय यह समाज को उद्बोधन के गीत सुनाता है। ‘जागो फिर एक बार’, ‘जागा दिशा ज्ञान’, ‘छत्रापति शिवाजी का पत्रा’ आदि उद्बोधन नव निर्माण और देश भक्ति के गीत हैं -

पशु नहीं वीर तुम, समर-शूर क्रूर नहीं

काल-चक्र में हो दबे आज तुम राजकुँवर - समर सरताज

राष्ट्रीय उद्बोधन की निराला की अपनी मौलिक शैली उनके रचना-जीवन में शुरू से ही विद्यमान है। भारत की गुलामी और मुक्ति की समस्या के प्रति शुरू से सचेत हैं। उनकी इस राष्ट्रीय चेतना का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि ‘मातृभूमि’ उनकी पहली कविता है, चाहे शिल्प-विधान और शब्द-योजना की दृष्टि से वह कितना ही परिपक्व रचना क्यों न हो लेकिन यदि कविता की आत्मा को झाँक कर पहचान सकें तो उसमें कवि की स्वाधीन चेतना की झलक मिलती है।

चूम चरण मत चोरों के तू, गले लिपट मत गोरों के तू।

(8) मानवतावादी दृष्टिकोण -

इस कोटि की रचनाओं में निराला ने प्रगतिवादी पक्ष की परिणति मानवता और विश्वबन्धुत्व में की है। सुखी विश्व का स्वरूप, जिसमें मनुष्य स्नेह, भ्रातृत्व और समानता के धागे में हों, जहाँ ईर्ष्या, द्वेष, ऊँच-नीच आदि के भेद-भाव असमानता, विषमता, वैमनस्य आदि समाप्त हो गये हों वहीं मनुष्य की प्रगतिशील आत्मा विराम लेती है। इसी पर निराला व्यंगपूर्वक कहते हैं -

ऊंट बैल का साथ हुआ है,

कुत्ता पकड़े हुए जुआ है।

छायावादी कविता का उद्देश्य मात्रा प्रकृति का मानवीय भावनाओं के अनुकूल चित्राण नहीं था वरन् उसका मूल स्वर मानवतावादी दृष्टिकोण एवं राष्ट्रीयता भी रहा है। यदि कहा जाय कि निराला के समान सच्चा मानवतावादी व राष्ट्रीय संस्कृति का पोषक छायावाद का कोई भी कवि नहीं था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनका ध्यान सदैव मनुष्यों की मार्मिक दशाओं के चित्राण पर केन्द्रित रहा। राष्ट्रीय राजनीति का यद्यपि वे कहीं जिक्र नहीं करते लेकिन टूटी हुई भारतीय संस्कृति से उन्हें मोह रहा।