A.U. B.A. Hindi I - Ch.3. (सूर्य कान्त त्रिपाठी - ‘निराला’) -1

 प्र.1. ‘निराला’ की काव्यगत विशेषताओं का विश्लेषण कीजिये।                                   (2006)

अन्य सम्बन्धित प्रश्न -

प्र. ‘निराला’ की काव्य प्रवृत्ति बहुआयामी है, सोदाहरण स्पष्ट कीजिये।                     (2017)

प्र. ‘निराला’ विद्रोही चेतना के कवि हैं। स्पष्ट कीजिये।                                   (2014)

प्र. ‘निराला’ की कविताओं में सौन्दर्य का आधुनिक स्वरूप विद्यमान है इस कथन की मीमांसा कीजिये।                                                                                                                                             (2010)

प्र. ‘निराला’ की काव्यभाषा पर प्रकाश डालिये।                                   (2012)

प्र. ‘निराला’ काव्य के भाषायी संरचना की समीक्षा कीजिये।                               (2009)

प्र. ‘निराला वैविध्य के कवि हैं।’ प्रमाणित कीजिये।                                           (2008)

प्र. महाप्राण निराला की काव्य प्रवृत्ति बहुआयामी है, पठित कविताओं के आधार पर सोउदाहरण स्पष्ट कीजिये।                                                                                         (2019) 

उ. निराला का काव्य सौन्दर्य -

निराला स्वभावतः विद्रोही हैं। उन्होंने जीवन साहित्य एवं समाज की भाँति कला के क्षेत्रा में भी रूढ़ियों एवं परम्पराओं को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने भाषा, छन्द, शैली प्रत्येक क्षेत्रा में मौलिकता, नवीनता का समावेश करने का प्रयत्न किया है। भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही क्षेत्रों में हिन्दी साहित्य को छायावाद ने महत्वपूर्ण योगदान किया है। छायावादी कवियों ने भावपक्ष के क्षेत्रा में अनेक नवीन विषयों का समावेश किया। कला के क्षेत्रा में उन्होंने नवीन भाषा शक्ति, मौलिक छन्द विधान एवं नवीन अलंकार शैली को जन्म दिया। निराला की भाषा शैली छायावाद के सभी गुणों से युक्त है। जिसके अन्तर्गत गीतिकाव्य, भाषा-शैली, प्रतीक एवं बिम्ब विधान, अलंकार छन्द, संगीतात्मकता आदि आते हैं।

गीतिकाव्य अथवा गेयता - 

गीतिकाव्य कवि के अन्तर्मन की रागात्मक अभिव्यक्ति होता है। कवि के मन का भावात्मक आवेग, उसकी सौन्दर्य-दृष्टि तथा उनके संगीतबद्ध अभिव्यक्ति से सन्तुलित समन्वय संगीत की रचना होती है। गीतिकाव्य वस्तुतः कवि के मन की विशिष्ट भावस्थिति की कल्पना एवं संगीतात्मकता के योग से रागात्मक उदगार होता है। गीत में एक ही भाव का आत्मनिष्ठ एवं एकात्मक चित्राण होता है। कवि मन की आवेगपूर्ण अवस्था का सहज उद्गार गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषता है। इस प्रकार इस आत्मनिष्ठ काव्य प्रकार में भावना संगीत एवं सौन्दर्य की रागात्मक एवं एकात्मक स्थिति रहती है। ‘काव्य-विषय’ भावनावृत्त रहता है।

छायावादी कवियों में आत्माभिव्यक्ति की प्रचुरता है। निराला जी ‘वस्तु’ के आधार मात्रा से अपने सौन्दर्य एवं प्रेम भाव को बौद्धिक स्तर प्रस्तुत करते हैं। वेदान्त के प्रभाव से कवि के मन में तटस्थता का भाव प्रमुख रहा है। अतः उनके भाव चित्रों में स्त्रौणता के स्थान पर पुरूषोचित ओजमय प्रवाह है।

निराला जी के काव्य प्रवाह में गीतिभावना परवर्ती कृतियों में विशेष रूप से प्राप्त है। अद्वैतवादी दर्शन निराला के व्यक्तित्व को विशिष्टता प्रदान करता है। इसके कारण निराला जी में जहाँ एक ओर मानव मात्रा के प्रति करूणा की भावना जाग्रत हुई तथा चराचर सृष्टि के प्रति अनुरागपूर्ण आत्मीयता उत्पन्न हुई वहाँ दूसरी ओर निस्संगता भी पैदा हुई। उनके गीतों में सृष्टि के प्रति अपार आकर्षण एवं तटस्थता के परस्पर विरोधी भाव लक्षित होते हैं। यही कारण है कि निराला जी अमूर्त तत्वों के दर्शन कराते हैं एवं लौकिक चित्रों के माध्यम से अलौकिकता का प्रसार करते हैं। ‘जूही की कली’, ‘तुम और मैं’ आदि गीतों में कवि की सौन्दर्य-सृष्टि एवं आध्यात्मिकता का सुन्दर समन्वय हुआ है। संसार की असारता, मायावृत्तता के बीच फँसी आत्मा की मुक्ति का चिन्तन एवं परमात्मा की प्राप्ति का पूर्ण सन्तोष उनकी प्रारम्भिक कृतियों में प्राप्त होता है। इनमें शिथिलता का भाव कम और उत्साह की भावना प्रचण्ड है। वैयक्तिक जीवन की पीड़ा-व्यथाओं को छिपाकर अदम्य उत्साह का संचार निराला जी की पूर्ववर्ती कृतियों की विशेषता है।

भाषा शैली -

भाषा के धनी निराला सर्वथा समर्थ साहित्यकार थे। भाषा उनकी चेरी थी। भावों का अनुगमन करती भाषा भाव के साथ चलती है। साहित्य में सम्भवतः निराला जी ऐसे साहित्यकार हैं जिनको भाषा में वैविध्य तथा भाषा पर समान अधिकार प्राप्त था। गद्य और पद्य दोनों छोर थे। दोनों में समर्थ प्रतिभा ने समान दम-खम दिखाया है। निराला संस्कृत के अध्येता थे। बंगला, अंग्रेजी पर भी उनकी गहरी पहँुच थी। उन्होंने सचेष्ट होकर कहीं भी संस्कृत शब्दों का प्रयोग नहीं किया। भाव के साथ भाषा का प्रवाह अत्यन्त सरल एवं सहज है। संस्कृतनिष्ठ भाषा के इतने लम्बे शब्द-युग्म साहित्य के इसी यशस्वी साहित्यकार द्वारा सम्पन्न हो सके हैं। 

निराला ने संस्कृत के साथ उर्दू शब्दों का भी प्रयोग किया है। अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग द्वारा इस साहित्यकार ने अपनी अपूर्व पहँुच तथा साख का परिचय दिया है।

निराला ने भाषागत कुछ प्रयोग किये हैं। गद्य में भाषा वैविध्य का परिज्ञान होता है और काव्य भाषा में शब्द प्रसार का प्रयोग दिखाई पड़ता है। शिवमंगल जी ने इसी आशय का एक सारगर्भित तथ्य इस प्रकार रखा है ‘‘एक बात जिस ओर बहुधा लोगों का ध्यान नहीं जाता, वह यह है कि निराला के आरम्भिक गद्य की भाषा और उसका विन्यास एवं शब्द चयन जिस प्रकार का है, उसी प्रकार के ये सब उपकरण हम उनके पूर्ववर्ती काव्य में भी पाते हैं। ‘अप्सरा’ और ‘प्रभावती’ उपन्यासों की भाषा से उनके पूर्ववर्ती काव्य में भावों के साथ ही भाषा में जो स्वच्छन्दता आई थी उसका प्रयोग वे ‘चोटी की पकड़’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘चतुरी चमार’ आदि में कर चुके हैं, वे पहले गद्य में अपने विचारों के योग्य भाषा का प्रयोग कर लेते थे, तब उसका प्रयोग अपने मुक्त काव्य में करते थे।’’

निराला के भाव तथा भाषा में अनेक प्रयोग किये, लेकिन उनकी संस्कृतनिष्ठ भाषा का बहाव सर्वत्रा ही दिखाई पड़ता है। कुकुरमुत्ता, बेला, नये पत्ते में प्रयोगों की परम्परा है। जिसमें भाषा को लेकर नये प्रयोग हैं, लेकिन कुल मिलाकर उनकी भाषा अपनी उसी शिष्ट परम्परा पर आधारित है। संस्कृत तथा शब्दों के मोह के कारण निराला की आलोचना भी की गई है लेकिन यह मानना पड़ता है कि कठिन शब्दों के तारतम्य में भी सरिता का सा प्रवाह है जिसमें निराला पूर्ण सिद्धहस्त थे।

पाठक के लिए निराला तथा उनकी भाषा दोनों समस्या हैं। सामान्य पाठक के लिए निराला बोधगम्य नहीं। सच्चाई तो यह है कि निराला ने स्वान्तः सुखाय लिखा, पाठक को सामने रखकर नहीं। वे जीवन्त तथा सहज मौलिक कवि थे। उनको व्यक्ति की इच्छा आपूर्ति में विश्वास नहीं था।

भाषा -

निराला की भाषागत विशिष्टताओं पर डॉ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय का वियार बड़ा ही समीचीन प्रतीत होता है। ‘निराला में भाषा-कामिनी का रूप दृढ़ और दीप्त अधिक है, लज्जालु और सुकुमार कम। उसमें उत्पादकता और संगीत उतना नहीं जितना सौष्ठव और दर्प है।’ निराला जी संगीत के ज्ञाता थे उनकी लय, तुक, नाद आदि सभी बातों में अच्छा अनुभव था। संगीत उनकी पारिवारिक वस्तु थी जो समय के साथ निराला की रचनाओं में अवतरित हो उठी थी।

भाषा में एक प्रयोग हुआ है। भाषा का एक नव्यतम रूप अपनी कुछ शिष्ट मान्यताओं को लेकर उठा है और वह भी इसी तपस्वी की लेखनी के द्वारा। निराला पराक्रमी साधक थे। स्वच्छन्द, उन्मुक्त और एक प्रबल व्यक्तित्व वाले साहित्यकार थे। स्वामिनी होने के नाते उनकी लेखनी से उनके अहं का दर्प उनकी भाषा के कलेवर में अवतरित हुआ है। निश्चय ही खड़ी बोली उन्हें अपनाकर धन्य हो गई है।

प्रतीक एवं बिम्ब-विधान - 

                कवि एक संवेदनशील प्राणी होता है। वह बड़ा ही भावुक होता है। वही कवि जब कर्म की ओर बढ़ता है तो अपने भावों, विचारों को तारतम्यता के साथ रखता है। अभिधार्थ को ग्रहण करने के साथ लक्षणा तथा व्यंजना का भी सहारा लेता है। वह इन्हीं मान्य प्रतीकों के सहारे अपने मानस के बिन्दुओं को रूप प्रदान करता है। प्रतीकों के इस आदान-प्रदान में छायावादी कवि अग्रणी रहे हैं। निराला की भाव-व्यंजना इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से आगे बढ़ी है।  क्या आध्यात्मिक, क्या प्रेम विषयक चित्रा सभी में कवि के मार्मिक प्रतीकों का नियोजन हुआ है। बादलों के प्रतीक विविध भावों को व्यक्त करते हैं। कवि ने इसी प्रकार स्वप्न-भावना को भी प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया है। कवि ने सांस्कृतिक यथार्थों को भी प्रतीकों के द्वारा स्पष्ट किया है। ‘तुलसीदास’ का यह पद बहुत कुछ उसी भाव को स्पष्ट करता है।

सजता सुवेश फिर-फिर सुवेश जीवन पर

छोड़ता रंग फिर-फिर सवार 

उड़ती तरंग ऊपर पार

सन्ध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अंबरतर

‘संध्या सुन्दरी’ में प्रतीकों की उत्तम व्यवस्था है। परी के लिए कवि ने सर्वथा नवीन प्रतीक विधान किया है। निश्चय ही कवि निराला ने उदात्त भावों को व्यक्त करने का प्रयास किया है और पूर्ण सफलता पायी है।

अलंकार-विधान -

निराला मौलिक कवि थे। घोर भावुक थे। उनकी भावुकता की छाप निराला नगर में आज भी चर्चा का विषय है। ऐसे भावुक कवि द्वारा अलंकारों को सायास प्रश्रय मिलता यह कहाँ सम्भव था। वे चमत्कार में विश्वास नहीं रखते थे। सौन्दर्य के उपासक, लेकिन अलंकारिता के प्रति कोई मोह न था। यही कारण था, कि निराला का काव्य भावना से अधिक करीब तथा कलाकारिता से थोड़ा हटकर है। जो भी अलंकारों का समायोजन हुआ है वह सब मात्रा स्वाभाविकता के प्रवाह में होकर ही हुआ है।

वैसे कहीं-कहीं निराला ने अन्त्यानुप्रास को प्रयुक्त किया है। मुक्त छन्दों में भी उनकी यह स्थिति यथावत बनी रहती है। किन्हीं-किन्हीं स्थलों पर उपमाओं की भी स्थिति है जो इस प्रकार दृष्टव्य है -

वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा सी, 

वह दीप शिखा सी शान्त भाव में लीन

वह क्रूर काल-ताण्डव की स्मृति रेखा सी

वह टूटे तरू की छुटी लता सी दीन

दलित भारत की ही विधवा है।

एक विधवा है। भारत के टूटे अर्थतंत्रा युग की विधवा है। गरीबी, दैन्य, क्षोभ, प्रतारण, कष्ट की अनकही गाथा की मात्रा कंकाल है। उसको कवि ने स्वरूप दिया है, मूर्तवत्ता प्रदान की है, साकार बनाया है। 

अन्योक्ति अलंकार के भी उदाहरण निराला की कविताओं में प्राप्त हैं। जलद के प्रति, वन बेला, कुकुरमुत्ता आदि बहुत कुछ इसी आशय तथा उद्देश्य को लेकर चले हैं।

बोला मैं - बेला, नहीं ध्यान

लोगों को जहाँ खिली हो बनकर वन्य गान  

जब ताप प्रखर 

लघु प्याले में आ हल्की सुशीलता ज्यों भर 

तुम करा रही हो यह सुगन्ध की सुरा पान।

निराला की यह अमृत वाणी आज भी, और कल भी शाश्वत रूप साहित्य की निधि रहेगी। उसकी गेयता के साथ निराला की श्रम साध्य तपोमय साधना साकार होती रहेगी।