A.U. B.A. Hindi I Ch. 2. (जयशंकर प्रसाद) - 7

7. ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की ब्याली,

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खललेखा।

हरी-भरी-सी दौड़-धूप ओ जल-माया की चल-रेखा।।                                (2018)

शब्दार्थ - विश्व वन = संसाररूपी जंगल। व्याली = सर्पिणी। स्फोट = फटना। कम्प = कम्पन, काँपना, हलचल।

संदर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘कामायनी’ के ‘चिन्ता सर्ग’ से उद्धृत है।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण में मनु ने चिन्ता को सर्पिणी के समान भय उत्पन्न करने वाला बताया है।

व्याख्या - धन-धान्य से परिपूर्ण, वैभव-सम्पन्न, निश्चित देव-जाति के मनु को आज अपनी जाति के विनाश के कारण सर्वप्रथम चिन्ता का अनुभव हुआ है। यही कारण है कि वे इस चिन्ता नामक मनोभाव को सम्बोधित करते हुए कहते हैं। अरी चिन्ता! आज प्रथम बार तू मेरे मस्तिष्क में उत्पन्न हुई है। किन्तु तू बड़ी भयंकर है क्योंकि इस संसार रूपी वन में तू सर्पिणी के समान भय उन्पन्न करने वाली है, अर्थात् जिस प्रकार किसी सर्पिणी के छिपे रहने के कारण किसी वन में स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण नहीं किया जा सकता, ठीक उसी प्रकार तेरे कारण इस संसार में आनन्दपूर्वक जीवन यापन करना कठिन है। इतना ही नहीं, तू बड़ी उन्मत्तता से लोगोें के हृदय में ऐसा कम्पन्न उत्पन्न कर देती है जैसा ज्वालामुखी के भीषण विस्फोट के समय होता है।

चिन्ता! तू अभाव की चंचल पुत्राी है, अर्थात् अभाव ही चिन्ता का कारण है। इस प्रकार अभाव चिंता की जननी है। चिन्ता मानव के भाग्य की दुष्ट रेखा है क्योंकि उसके उदय होते ही मानव को बुरे अक्षरों में लिखे हुए अपने दुर्भाग्य की सूचना मिल जाती है। चिंता आशा से परिपूर्ण दौड़-धूप भी है क्योंकि उसके उत्पन्न होते ही मनुष्य आशा और निराशा के बीच भटकने लगता है। अन्त में कवि कहता है कि चिन्ता मृगमरीचिका के जल की मिथ्या एवं चंचल लहर है, क्योंकि जिस प्रकार मरूप्रदेश में जल की इच्छा से प्यासा मृग सूर्य की किरणों से उत्पन्न होने वाले जल के आभास को सत्य मानकर पानी के लिए भटकता रहता है, ठीक उसी प्रकार मानव चिन्ता में पड़कर इस संसार में भटकता रहता है।

विशेष - (1) वर्णन मनोवैज्ञानिक है। (2) चिन्ता का भाव बिम्ब चित्ताकर्षक है। (3) भाषा प्रवाहपूर्ण है।

8. चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी-

सुरभित जिससे रहा दिगन्त 

आज तिरोहित हुआ कहाँ वह 

मधु से पूर्ण अनंत बसंत?

कुसुमित कुजों में वे पुलकित 

प्रेमालिंगन हुए विलीन, 

मौन हुई हैं मूचि्र्छत तानें

और न सुन पड़ती अब बीन।                                          (2019)

शब्दार्थ - चिर-किशोर-वय = सदैव युवावस्था। सुरभित = सुगन्धित। दिगंत = दिशाएं। तिरोहित = लुप्त विलीन। मधु = रस, सौंदर्य। अनन्त वसंत = चिर वसंत, चिर यौवन। पुलकित = रोमान्चित, प्रकम्पित।

संदर्भ - प्रस्तुत अवतरण जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनी के ‘चिन्ता सर्ग’ से उद्धृत है।

प्रसंग - इन पंक्तियों में देवताओं के चिर यौवन के पतन का उल्लेख है।

व्याख्या - मनु विचार करते हैं कि देवगण तो अजर-अमर कहलाते थे। वे सदैव कैशोर्य अवस्था में रहने वाले थे। वृद्धावस्था उनके निकट नहीं आ पाती थी, आज उनका चिरयौवन कहाँ लुप्त हो गया? उनके यौवन की सुगन्धि से सभी दिशाएँ सुगन्धित रहती थीं। सर्वत्रा उनके यौवन की धूम मची रहती थी। आज वह तरूणायी कहाँं चली गयी? उनका नित्य-विलासी स्वरूप कहाँ तिरोहित हो गया?  उनका मधुमय और अनन्त वसंतों से भरा जीवन अचानक कहाँ विलुप्त हो गया?

देवगणों की विलासिता एवं उनकी काम-भावना के विषय में मनु कहते हैं कि देवतागण एवं उनकी स्त्रिायां खिले हुए पुष्पों से भरे हुए कुंजों में विहार करते हुए परस्पर प्रेमपूर्वक आलिंगनबद्ध हुआ करते थे। आज वह स्थिति नहीं रही। उस समय उन कुंजों में संगीत की मधुर तानें सुनाई पड़ा करती थीं, किन्तु आज वे संगीत लहरियाँ शान्त हो चुकी हैं। यहाँ तक कि अब उन कुंजों में वीणावादन भी नहीं होता।

विशेष - (1) छायावादी लाक्षणिकता द्रष्टव्य। (2) ‘सुरभित’, ‘मधु’, ‘अनन्त वसन्त’ आदि प्रतीकात्मक शब्दों का प्रयोग। (3) देवजाति की संगीत प्रियता की ओर संकेत।