A.U. B.A. Hindi I Ch. 2. (जयशंकर प्रसाद) - 6

 5. वह उन्मत्त विलास हुआ क्या?

स्वप्न रहा या छलना थी!

देव सृष्टि की सुख विभावरी 

ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से

जीवन के मधुमय निश्वास।

कोलाहल में मुखरित होता

देव जाति का सुख-विश्वास।                                     (2009)

उ. शब्दार्थ - उन्मत्त विलास = निर्बाध भोग। छलना = धोखा, प्रवंचना। विभावरी = रजनी, रात्रि।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यावतरण जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘कामायनी’ के ‘चिन्ता’ सर्ग से उद्धृत है।

प्रसंग - इन पंक्तियों में मनु ने देवताओं के प्रभाव को क्षीण बताया है।

व्याख्या - मनु विचार करते हैं कि देवताओं का यह निर्बाध विलास कहाँ चला गया? क्या यह कोई स्वप्न था अथवा धोखा? वास्तविकता यह है कि देवताओं के सुख की रात्रि तारों की रचना के समान क्षणिक थी। सन्ध्या के आगमन के साथ ही तारे आकाश में उदित होते हैं और रात हो जाती है। प्रातः काल होने पर तारे छिप जाते हैं और रात्रि का अवसान हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार रात नश्वर है ठीक उसी प्रकार देवताओं का सुख भी नश्वर था।

मनु देवजाति के सुखोन्माद एवं आनन्द-उल्लास का स्मरण करते हुए कहते हैं कि देवताओं एवं देवांगनाओं के अंचल सुगन्ध से परिपूर्ण रहते थे। वे अपने शरीर के वस्त्रों को सदैव सुगन्धित रखते थे, यहाँ तक कि उनके श्वास-प्रश्वास की मधुरता भी युक्त थी। उनका सम्पूर्ण जीवन उल्लासमय था। सुख-प्राप्ति ही उनके जीवन का उद्देश्य था जो उनके कोलाहल भरे आयोजनों से प्रकट होता था अर्थात् देवगण उत्सवप्रिय थे। इन संगीत भरे उत्सवों में उनका मन खूब रमता था। वे मुक्त भाव से अपने हार्दिक उल्लास की अभिव्यक्ति ऐसे अवसरों पर किया करते थे।

विशेष - (1) वर्णन प्रभावपूर्ण। (2) भाषा व्यंजक। (3) लक्षणा शक्ति का प्रयोग।

6. इस ग्रह कक्षा की हलचल! री

तरल गरल की लघु लहरी;

जरा अमर जीवन की, और न

कुछ सुनने वाली, बहरी!

अरी व्याधि की सूत्रा-धारिणी!

अरी आधि, मधुमय अभिशाप!

हृदय-गगन में धूमकेतु सी,

पुण्य सृष्टि में सुन्दर पाप।                                         (2017)

उ. शब्दार्थ - ग्रह कक्षा = ग्रहों के भ्रमण का मार्ग। तरल = द्रव। गरल = विष। लघु लहरी = छोटी तरंग। 

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में मनु का कहना है कि प्रकृति में भी चिन्ता के लक्षण परिलक्षित होते हैं।

व्याख्या - चिन्ता के सम्बन्ध में विचार करते हुए मनु की कल्पना पृथ्वी से आकाश में पहँुचती है। वहाँ आकाश में निरन्तर घूमने वाले ग्रहों में भी उन्हें चिन्ता के दर्शन होते हैं। वे सोचते हैं कि ग्रह अपने पथ पर अविराम गति से क्यों चक्कर काटते हैं। इनमें सदैव यह गति, यह हलचल क्यों रहती है? मनु का अनुमान है कि चिन्ता के ही कारण यह हलचल है।

चिन्ता वास्तव में द्रवित विष की एक छोटी-सी लहर है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार विष की एक बूँद शरीर में पहँुचकर सम्पूर्ण शरीर के रक्त में फैल जाती है और मनुष्य को व्याकुल बना देती है, ठीक उसी प्रकार चिन्ता के लेशमात्रा से मानव-चेतना प्रभावित हो जाती है। चिन्ता अमर जीवन की वृद्धावस्था है अर्थात् इसी के कारण मनुष्य समय से पूर्व वृद्ध हो जाता है। यही नहीं वह ‘बहरी’ भी है, क्योेंकि जिस प्रकार बधिर व्यक्ति की श्रवण शक्ति निष्क्रिय हो जाती है और उसे कुछ भी सुनाई नहीं देता, उसी प्रकार चिन्ताकुल व्यक्ति किसी दूसरे के समझाने से नहीं समझता।

चिन्ता पीड़ाओं की जननी है। चिन्ताकुल व्यक्ति को अनेक ऐसे शारीरिक एवं मानसिक रोग हो जाते हैं, जिनका कारण खोजना अतीव दुष्कर है। यहाँ चिंता को कवि ने ‘मधुमय-अभिशाप’ की संज्ञा दी है। इसका प्रमुख कारण यह है कि चिन्ता मनुष्य के मस्तिष्क को सक्रिय बनाती है तथा उसमें नवीन भावों, नवीन विचारों और नवीन संकल्पों का उदय होता है। इस वृद्धि से चिन्ता मधुमय है, आकर्षक है, सुन्दर है और है शुभ। साथ ही चिन्ता मनुष्य को उद्विग्नता, पीड़ा और मानसिक तथा शारीरिक कष्ट भी प्रदान करती है। इसलिए वह अभिशाप है। जिस प्रकार शाप अपने आप में अशुभ होता है उसी प्रकार चिन्ता भी अमंगलकारिणी होती है।

चिन्ता हृदयरूपी आकाश में पुच्छलतारे के समान उदित होती है, क्योंकि जिस प्रकार आकाश में पुच्छलतारे के उदय होने पर कोई-न-कोई अमंगलकारी घटना होती है, उसी प्रकार हृदय में चिंता के अविर्भाव से भी पीड़ा, बेचैनी, व्यग्रता आदि अमंगल होते हैं। इतना ही नहीं, इस पुण्यमय जगत् में चिन्ता ऐसा पाप है, जो केवल देखने में ही सुन्दर है किन्तु जिसका परिणाम अन्य पापों की भाँति सदैव अमंगलकारी ही होता है।

विशेष - (1) वर्णन की सूक्ष्मता द्रष्टव्य। (2) चिंता से उद्भूत परिणामों का सुन्दर निदर्सन दर्शनीय।