A.U. B.A. Hindi I Ch. 2. (जयशंकर प्रसाद) - 5

 कामायनी (चिंता सर्ग) 

प्र.5. निम्नलिखित अवतरण की ससंदर्भ व्याख्या कीजिये।

1. चिन्ता करता हूँ मेैं जितनी उस अतीत की, उस सुख की, 

उतनी ही अनन्त में बनतीं जाती रेखायें दुख की। 

आह सर्ग के अग्रदूत! तुम असफल हुए, विलीन हुए,

भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए।                                  (2011, 15)                       

उ. संदर्भ एवं प्रसंग -

ये काव्य-पंक्तियाँ हिन्दी के प्रसिद्ध छायावादी एवं रहस्यवादी कवि जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ के ‘चिन्ता सर्ग’ से उद्धृत हैं। यहाँ मनु चिन्ता कर रहे हैं।

व्याख्या - प्रसादजी कह रहे हैं कि मनु मनन करते हैें कि मैं भूतकालीन वैभव और विलास के सुख की जितनी स्मृति करता हूँ उतनी ही दुःख की रेखायें अर्थात् धनीभूत भावनायें, मेरे अनन्त इच्छाओं वाले हृदय में उसी प्रकार बनती जाती हैं, जिस प्रकार अगणित तारिकाओं वाले आकाश में तारिकाओं के टूटने से दुःख की रेखायें खिंच जाती हैं।

देव जाति मानव जाति से पूर्व रहने वाली जाति थी। मनु कहते हैं कि संसार में सर्वप्रथम आने वाले देवताओं तुम अपनी उच्छृंखलता के कारण असफल हुए हो। तुम्हें भक्षक कहा जाये अथवा रक्षक, तुम्हारे लिए दोनों ही उचित है। तुमने अपने ऐश्वर्य तथा वासना की रक्षा में स्वयं को विनष्ट कर दिया है। यही नहीं तुमने स्वयं अपनी जाति को समूल नष्ट कर दिया।

विशेष - (1) अलंकार-‘अनंत’, शब्द विशेषण है। इसका साभिप्राय प्रयोग होने के कारण परिकरांकुर अलंकार है। अनन्त में श्लेष अलंकार है।

(2) ‘अनंत’ शब्द से ‘हृदय’ अर्थ की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि चिन्ताग्रस्त व्यक्ति के हृदय में भी उद्भूत भावों का पार नहीं होता।


2. पवन पी रहा था शब्दों को 

निर्जनता की उखड़ी साँस,

टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि

बनी हिम-शिलाओं के पास।

घू-घू करता नाच रहा था

अनस्तित्व का तांडव नृत्य;

आकर्षण विहीन विद्युत्कण

बने भारवाही थे भृत्य।                                                              (2014)

उ. शब्दार्थ - पवन पी रहा था शब्दों को = शब्द वायु में विलीन हो रहे थे। निर्जनता की उखड़ी साँस = नीरवता समाप्त हो गयी। दीन = विवश। धू-धू करता = धू-धू की विनाशकारी ध्वनि करता हुआ। अनस्तित्व = विध्वंस।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्यांश जयशंकर प्रसाद की कामायनी के चिन्ता सर्ग से उद्धृत है।

प्रसंग - इन पंक्तियों में मनु की खिन्नता एवं विवशता का वर्णन है।    

व्याख्या - प्रसाद जी कहते हैं कि मनु के ये शब्द धीरे-धीरे वायु में विलीन होते जा रहे थे, जिनके फलस्वरूप अब वहाँ नीरवता समाप्त हो गयी थी और मनु के शब्द की वह ध्वनि हिमालय की बर्फीली चोटियों में टकराती हुई खिन्नता एवं विवशता से भरी हुई प्रतिध्वनि के रूप में सुनाई पड़ती थी।

अभी तक विध्वंस का विनाशकारी कार्य समाप्त नहीं हुआ था, अपितु वह चारों ओर धू-धू की भयंकर ध्वनि करता हुआ सृष्टि के पदार्थों को विनष्ट कर रहा था। उस समय पारस्परिक आकर्षण-शक्ति के छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण सम्पूर्ण अणु-परमाणु बोझा ढोने वाले दासों के समान इधर-उधर बिखर कर बोझा ढोते हुए से दृष्टिगत हो रहे थे।

विशेष - (1) ध्वन्यात्मकता। (2) नाद-सौन्दर्य विद्यमान। (3) विज्ञान के सिद्धान्त की ओर संकेत।


3. बुद्धि-मनीषा, मति, आशा, चिंता

तेरे हैं कितने नाम!

अरी पाप है तू, जा, चल जा

यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,

नीरवते! बस चुप कर दे;

चेतनता चला जा, जड़ता से

आज शून्य मेरा भर दे।                                                         (2013)                               उ. शब्दार्थ -

मनीषा = बुद्धि, इच्छा, विचार, स्तुति। विस्मृति = विस्मरण, भूल। अवसाद = उदासीनता। 

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ के ‘चिन्ता’ सर्ग से उद्धृत हैं।

प्रसंग - मनु का कहना है कि चिन्ता मुझसे दूर चली जाय क्योंकि चिन्ता से कोई कार्य होने वाला नहीं है। 

व्याख्या - मनु का कहना है कि चिन्ता के अनेक नाम हैं, यथा बुद्धि, इच्छा, विचार, मति, आशा आदि। बिुद्ध निश्चय कराती है और यह कार्य चिन्ता अथवा चिन्तन के द्वारा ही सम्भव है। मनीषा का कार्य विचार अथवा मनन करना है, इसलिए वह भी चिन्ता का ही रूप है। मति का अर्थ है बुद्धि, समझ, इच्छा अथवा अभिप्राय यह भी चिन्तन का ही रूप है। इसी प्रकार आशा भी चिन्ता का ही परिणाम है। इस प्रकार की चिन्ता से मनु बचना चाहते हैं। इसलिए चिन्ता को मनु पापमयी और अनिरूपा कहते हैं। अन्त में वे उससे अनुरोध करते हैं कि वह उनके हृदय का परित्याग करके कहीं अन्यत्रा चली जाय क्योंकि उससे कोई भी कार्य सिद्ध होने वाला नहीं है।

कहने का तात्पर्य यह है कि वह चिन्ता से मुक्ति चाहते हैं, और विस्मृति का वरण। क्योंकि स्मृति से ही चिन्ता का उद्भव होता है। वह अवसाद अथवा उदासीनता से स्वयं को घेर लेने का अनुरोध करते हैं, क्योंकि इसी के माध्यम से वह अतीत को भुला सकते हैं, उसके प्रति उदासीन हो सकते हैं और इस प्रकार उनका दुःख दूर हो सकता है। वह नीरवता से भी चुप रहने की प्रार्थना करते हैं अर्थात् वह स्वयं न तो कुछ कहना चाहते हैं और न सुनना। यहाँ तक कि वह चेतना को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे चेतनते! तू भी मेरे निकट न रह अपितु मेरे रिक्त हृदय को बेहोशी से भरकर कहीं दूर चली जा जिससे मैं चेतनाहीन होकर शान्ति का अनुभव कर सकँू।

विशेष - (1) चिन्ता के विभिन्न रूपों का सुन्दर वर्णन। (2) वर्णन मनोवैज्ञानिक। (3) कामायनी की कथा की ओर संकेत। (4) तत्सम शब्दावली का प्रयोग। (5) भाषा प्रवाहपूर्ण एवं प्रभावपूर्ण।


4. अरे अमरता के चमकीले

पुतलों! तेरे वे जय नाद;

काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि

बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रहे दुर्जेय, पराजित

हम सब थे भूले मद में;

भोले थे, हाँ तिरते केवल

सब विलासिता के नद में;

वे सब डूबे, डूबा उनका 

विभव, बन गया पारावार;

उमड़ा रहा था देव सुखों पर

दुःख जलधि का नाद अपार।                                                             (2012)                  

उ. शब्दार्थ -

अमरता के चमकीले पुतले = अमरता की मिथ्या भावना से भरे हुए वैभव-सम्पन्न देवता। जयनाद = विजय का स्वर। विषाद = उदासीन, शोक।  

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘कामायनी’ के ‘चिन्ता’ सर्ग से उद्धृत हैं।

प्रसंग - इस अवतरण में मनु कहते हैं कि देवताओं का प्रभाव इस प्रलय के द्वारा समाप्त हो गया।

व्याख्या - मनु देवजाति के मिथ्याभिमान को लक्ष्य करके उसकी अमरता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि हे देवताओं! तुम्हें अपनी अमरता पर बड़ा गर्व था और तुम इस झूठी चमक पर बहुत इतराया करते थे। तुम्हारी विजयों का कोलाहल जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रहता था, आज प्रलय के द्वारा परास्त कर दिया गया है। आज तुम्हारे विजय के स्वर केवल एक काँपती हुई गूंज के रूप में शेष रह गये हैं, जिसमें उल्लास के स्थान पर दीनता और करूणा की ध्वनि है।

आगे देवजाति की विलासान्धता के विषय में मनु बताते हैं कि देवतागण प्रकृति पर विजय प्राप्त करना चाहते थे, उसके नियमों का उल्लंघन कर रहे थे। किन्तु प्रकृति अपराजेय है, उसे जीतना सर्वथा दुष्कर है। देवजाति अहंकार में सब कुछ भूली हुई थी। वे इतने बड़े मूर्ख थे कि विलासिता के समुद्र में निरन्तर तैर रहे थे। ऐसी भयावह स्थिति में विवेक भी उनका साथ छोड़ बैठा था। 

इस प्रकार विलासिता के समुद्र में सारे देवता निमग्न हो गये। उनका अपार धन, वैभव और ऐश्वर्य भी उसी में डूब गया। सर्वत्रा जल-ही-जल फैल गया। मानो सब कुछ एक महासागर के रूप में परिवर्तित हो गया। आज देवताओं के सुखों पर दुखों के समुद्र की गर्जना हो रही है, देवताओं के सुख तिरोहित हो गये हैं, उनके स्थान पर चतुर्दिक दुःख-ही-दुःख हो रहा है।

विशेष : (1) वर्णन प्रवाहपूर्ण। (2) भाषा तत्सम शब्दावली से युक्त खड़ी बोली।