A.U. B.A. Hindi I Ch. 2. (जयशंकर प्रसाद) - 4

प्र.4. ‘कामायनी’ की भाषा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।       (2013)

उ. ‘कामायनी’ की भाषा उसे काव्य के सर्वोत्कृष्ट बिन्दु तक ले जाती है। भावना उसी माध्यम से व्यक्त होती है। कामायनी में भावों के अनुसार भाषा का स्वरूप प्राप्त होता है। श्रृंगार और करूणा से भरा काव्य प्रांजल, सरस भाषा को लेकर चला है।

प्रसाद का शब्द चयन उनके प्रौढ़ शिल्प का परिचायक है। भाव का अंकन करने के लिए वे अनुकूल शब्दों को चुनते है। भावों के वहन, उनकी अभिव्यंजना में भाषा सफल होती है। ‘चिन्ता’ के शोक की अभिव्यक्ति अन्धकार, कालिमा, उल्का, भीषण रव, गर्जन आदि से हो जाती है। भयानक परिस्थिति के चित्रा खुरदुरे शब्दों द्वारा कवि ने प्रस्तुत किये हैं। संघर्ष, कर्म आदि के अवसर पर प्रखर शब्दों का अधिक उपयोग हुआ। तुमुल रणनाद, ज्वाला, तीक्ष्ण जनसंहार, उत्पात आदि अनेक शब्द स्थिति की भीषणता का आभास देते हैं। काम, लज्जा के सरस वर्णन में ‘कामायनी’ की भाषा प्रसादवान दिखाई देती है। काम, लज्जा का सूक्ष्म अंकन कवि के भाषा-कौशल के कारण सरस रूप में प्रस्तुत हुआ। वासना का आभास सांकेतिक शब्दों द्वारा किया गया। भाषा, भाव ‘कामायनी’ में एक दूसरे के पूरक बनकर आये हंै। भाषा भावों का आवरण नहीं बन जाती और न वह उनके पीछे ही रह जाती है। अपने सहज माधुर्य प्रसाद गुण से भरकर वह भावों को ले चलती है। ‘कामायनी’ की शब्दशक्ति में लक्षणा, व्यंजना का ग्रहण अधिक है। भारतीय साहित्यशास्त्रा में ध्वनि का महत्वपूर्ण स्थान है। आनन्दवर्द्धनाचार्य ने शब्द-अर्थ का समन्वय प्रस्तुत करते हुए ध्वनि की  प्रतिष्ठा की। स्वयं प्रसाद ध्वनि के अन्तर्गत रस और अलंकार का अन्तर्भाव स्वीकार करते हैं।  ‘कामायनी’ में अलंकार, वस्तु, भाव, रस आदि ध्वनियों  के उदाहरण सहज प्राप्त हो जाते है।

अलंकार ध्वनिः 

इस ग्रह कक्षा की हलचल ही तरल गरल की लघु लहरी

        जरा अमर जीवन की और न कुछ सुननेवाली बहरी।

वस्तु ध्वनिः

आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा

तुमको अपनी स्मित रेखा से यह सन्धि-पत्रा लिखना होगा।

रस ध्वनिः

अब न कपोलों पर छाया सी पड़ती मुख की सुरभित भाप

भुज मूलों से शिथिल बसन की व्यस्त न होती है अब माप।

भाषा की व्यंजना-शक्ति तथा ध्वन्यात्मकता के साथ उसमेें चित्रामयता तथा मूर्तिमयता का भी समावेश अनिवार्य है। विद्वान कविता और चित्रा-कला में भी साम्य मानते हैं। साधारण शब्दों द्वारा जिन भावों को प्रस्तुत करना सम्भव नहीं, उन्हें, चित्रा से प्रकट किया जाता है। सफल कवि सुन्दर शब्द-शिल्पी भी होता है और शब्दों के द्वारा चित्रा बना लेता है। किसी भाव अथवा वस्तु को मूर्तिमान करता है। भावों की साकारता भाषा की चित्रामयता पर निर्भर है। ‘कामायनी’ में बिम्बों-चित्रों की प्रधानता है, समस्त मनोवृत्तियों को साकार रूप में चित्रित किया गया है। चिन्ता, काम सभी सजीव, मूर्तिमान हो उठे हंै। जड़ता में चेतनता का आरोप कर कवि ने उनका मानवीकरण भी कर लिया। सम्पूर्ण चित्रा भाव को केन्द्रित रूप में प्रस्तुत करता है। कामायनी की मनोवृतियाँ भाव-चित्रा बनकर आयी हैं। भाषा की सजीव चित्रामयता उन्हें प्रतिष्ठित करने में सफल हुई। लज्जा का सूक्ष्म भाव इसी कारण चित्रित हो सका :

कोमल किसलय के अंचल में

नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी

गोधूली के धूमिल पट में

दीपक के स्वर में दिपती-सी।

मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में

मन का उन्माद निखरता ज्यों

सुरभित लहरों की छाया में

बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों।