A.U. B.A. Hindi I Ch. 2. (जयशंकर प्रसाद) - 3

 प्र.3. ‘कामायनी’ के महाकाव्यत्व पर प्रकाश डालिये।                                                 (2016)

उ. कामायनी एक महाकाव्य - यह हिन्दी साहित्य का अपूर्व महाकाव्य है। इसके कथानक का सूत्रा ऋग्वेद, पुराणों तथा ब्राह्मणों में पाया जाता है। इस काव्य की महान् घटनाएँ - देव सृष्टि के विनाश के पश्चात् मनु का प्रकृति पर विजय पाना, इड़ा के सहयोग से नागरिक सभ्यता को विकसित करना, जीवन संघर्ष के पश्चात तीनों वृत्तियों का साक्षात्कार करना और आनन्द प्राप्त करना आदि है। इसमें पन्द्रह सर्ग हैं। मनु इसके नायक हैं। मानव उनकी अमर सन्तति है। कामायनी में प्रधान रस-श्रंृगार है। वात्सल्य, करूण, रौद्र तथा वीर रस सहायक के रूप में प्रयुक्त  हुए हैं। इसका प्रकृति वर्णन बड़ा ही अनूठा है। उषाकाल का वर्णन देखिए -

उषा सुनहरे तीर बरसाती, जयलक्ष्मी सी उदित हुई।

उधर पराजित काल रात्रि भी, जल में अन्तर्निहित हुई।।

श्री शिवकुमार मिश्र कामायनी के विषय में लिखते हंै कि उनके एक-एक गीत में अनुभूतियों की सच्चाई है, कल्पना की प्रचुरता है और काव्यात्मकता का ‘उत्कर्ष’ है। कामायनी में हमें इन समस्त गुणों का अपरिमित कोष दीख पड़ता है। इसमें ‘चित्राधार’ का माधुर्य, ‘कानन कुसुम’ की मादकता, आँसू की वेदना, ‘लहर’ की गम्भीरता पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है।

कामायनी का भावपक्ष और कलापक्ष - ‘कामायनी’ छायावाद की प्रतिनिधि रचना है। इसमें छायावाद की समस्त विशेषताएँ पायी जाती हैं। जैसे अलंकारों की छटा, लाक्षणिकता, चित्रामयता,  ध्वन्यात्मकता तथा गीतात्मकता।

कामायनी में रस - प्रसाद जी जीवन के प्रत्येक क्षेत्रा में आनन्द को प्रधानता देते हैं। आनन्द सम्प्रदाय के अनुयायी लोग (शैव) उसकी दो सीमाएँ मानते हैं - शान्त और श्रंृगार। कामायनी में प्रधान रस श्रृंगार ही है। वात्सल्य, वीभत्स, रौद्र, करूण आदि रस यत्रा-तत्रा सहायक बनकर आये हंै। यहाँ तक कि रति का अवसान भी शान्त रस में हुआ है। ‘काम’ सर्ग में मनु की कामावस्था का चित्रा दर्शनीय है -

जब लिखते थे तुम सरस हँसी, अपनी फूलों के अंचल में।

अपना कलकण्ठ मिलाते थे, झरने के कोमल कल-कल मेेें।।

निश्चित आह! वह था कितना उल्लास, काकली के स्वर में।

आनन्द प्रतिध्वनि गूँज थी रही, जीवन दिगन्त के अम्बर में।।

श्रृंगार का स्थायीभाव रति है। इसलिए कवि ने नारी सौन्दर्य का वर्णन करके मनु के मन में ‘रति’ को उद्दीप्त किया है। 

कामायनी का वियोग श्रृंगार - कामायनी का वियोग वर्णन सापेक्षतया अधिक मार्मिक एवं सशक्त है। ‘कामायनी’ में तीन प्रकार के विप्रलम्भ मिलते हैं - मान, करूणा तथा प्रवास। विरह में स्मृति तथा धैर्य का एक चित्रा देखिये - 

आज सुनूँ केवल चुप होकर, कोकिल जो चाहे कह ले।

पर न परागों की वैसी, चहल-पहल जो थी पहले।।

इस पतझड़ की सूनी डाली और प्रतीक्षा  की सन्ध्या।

कामायनी! तू हृदय कड़ा कर धीरे-धीरे सब सह ले।।

कामायनी में अलंकार - अलंकार दो प्रकार के होते हैं। शब्दालंकार तथा अर्थालंकार। कामायनी में इन दोनों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। वृत्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रास और छेकानुप्रास का उदाहरण देखिये -

कोमल किसलय के अंचल में, न हीं कलिका ज्यों छिपती सी।

गोधूली के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती सी।।

कामायनी में उपमाओं और रूपकों का बाहुल्य है। मूर्त को मूर्त में उपमित करने का एक उदाहरण देखिए -

उसी तपस्वी से लम्बे थे, देवदारू दो चार खडे़।

हुए हिम धवल, जैसे पत्थर, बनकर ठिठुर रहे अडे़।।

कामायनी की भाषा - कामायनी की भाषा की प्रमुख विशेषता उसकी लाक्षणिकता है। इसके लाक्षणिक प्रयोग स्वाभाविक तथा सुबोध हंै। देखिए -

पगली हाँ संभाल ले कैसे, छूट पड़ा? तेरा अंचल।

देख बिखरती है मणिराजी, अरी उठा बेसुध चंचल।।

चित्रामयता - यह भाषा की दूसरी विशेषता है। प्रसाद जी शब्द चित्रा निर्माण में सिद्धहस्त हैं। आशा, चिन्ता, लज्जा, आदि के चित्रा बहुत ही कलात्मक एवं भावात्मक हैं। एक चित्रा देखिए-

मृत्यु, अरी चिर निद्रे! तेरा अंक हिमानी सा शीतल।

तू अनन्त में लहर बनाती, काल जलधि की सी हलचल।।

कामायनी की भाषा की तीसरी विशेषता विरोध संयुक्त शब्दों का प्रयोग है। ऐसे प्रयोग से भाषा की व्यंजकता बढ़ जाती है। 

गीतात्मकता - भाषा की चौथी  विशेषता है। कामायनी मेें गीतों का सुन्दर समावेश हुआ है। देखिए -

‘तुमुल कोलाहल कलह में, सुन हृदय की बात रे मन।’

 मानवीकरण और विशेषता विपर्यय के द्वारा भी भाषा में सशक्ता आती है। इससे भाषा के प्रवाह और उसकी मधुरिमा को गति मिलती है। देखिए-

छूने को अम्बर मचली सी बढ़ी जा रही सतत उँचाई।

विक्षित उसके अंग प्रकट थे भीषण खड्ड भयंकर खाई।।

प्रसाद जी ने भाषा में अलंकारों का प्रयोग उसे अलंकृत करने के लिए नहीं वरन् भावोत्कर्ष के लिए किया है। 

कामायनी में छन्द योजना-कामायनी की छन्द योजना सुमधुर है। इसमें हिन्दी के मात्रिक छन्दों का ही प्रयोग किया गया है।

ताटंक छन्द कामायनी का प्रमुख छन्द है। ‘चिन्ता’, ‘आशा’, ‘स्वप्न’, तथा ‘निर्वेद’ आदि सर्ग इसी छन्द में लिखे गये हैं। ‘काम’ तथा ‘लज्जा’ नामक सर्ग ‘पदपादा कुलक’ नामक छन्द में लिखे गये हैं। ‘वासना’ नामक सर्ग में ‘रूपमाला’ ‘संघर्ष’ नामक सर्ग में ‘रोला’ छन्द है। ‘इड़ा’ सर्ग गीतों में लिखा गया है।

कामायनी में प्रकृत्ति चित्राण - छायावादी कवियों ने प्रकृति में चेतन सत्ता का आरोप किया है।

   प्रसादजी इसके अपवाद नहीं। देखिए -

सिन्धु सेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी सी।

प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी, ऐंठी सी।।

प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में प्रतीकात्मक प्रणाली के रूप में भी प्रकृति का चित्राण किया है। इस पद्धति में प्रकृति के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप में अप्रस्तुत वर्णन द्वारा विषय का आभास मात्रा है। देखिए -  

कौन तुम बसन्त के दूत विरस पतझड़ में अतिसुकुमार।

घन तिमिर में चपला सी रेख, तपन में शीतल मन्द बयार।।

इसी प्रकार प्रसादजी की कामायनी में प्रकृति के कठोर और कोमल रूप भी देखने को मिलते हैं। प्रकृति का आलम्बन और उद्दीपन रूप भी कामायनी में चित्रित हुआ है।

निष्कर्ष -

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ‘कामायनी’ आधुनिक युग का प्रतिनिधि काव्य है। इसमें भाव एवं कलापक्ष का मणिका×चन योग उपस्थित हुआ है। छायावादी काव्य की सम्पूर्ण विशेषताओं से यह महाकाव्य ओतप्रोत है। इसकी भाषा लाक्षणिक  है। कल्पना की ऊँची उड़ान है। सौन्दर्य एवं श्रृंगारिकता का बोलबाला है। प्रकृति-चित्राण अनूठा है। सूक्ष्म मनोवृत्तियों एवं कोमल भावनाओं का अच्छा चित्राण है। शुक्ल जी ने भी कामायनी को बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण माना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य-कला की दृष्टि से ‘कामायनी’ एक उत्कृष्ट काव्य है।