A.U. B.A. Hindi I Ch. 2. (जयशंकर प्रसाद) - 2

 प्र.2. ‘चिन्ता सर्ग’ के कथ्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।                                            (2012)

अन्य सम्बन्धित प्रश्न -

प्र. ‘प्रसाद’ ने चिन्ता सर्ग में देवों के विनाश के कारणों एवं प्रलय की विभीषिका का विशद-चित्राण किया है। सोदाहरण उत्तर दीजिये।                                                                            (2011, 19)

प्र. ‘कामायनी’ के चिन्ता सर्ग में देवदृष्टि के किस चरित्रा का उद्घाटन किया गया है?                (2009)

उ. ‘‘यह मनु और कामायनी की कथा तो है ही, मनुष्य के क्रियात्मक, बौद्धिक और भावात्मक विकास में सामंजस्य स्थापित करने का अपूर्व काव्यात्मक प्रयास भी है। यही नहीं, यदि हम और गहरे पैठें तो मानव प्रवृत्ति के शाश्वत स्वरूप की झलक भी इसमें मिलेगी।’’ - आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी

भूमिका - ‘कामायनी’ जयशंकर प्रसाद की कीर्ति का स्थायी स्तम्भ है और छायावादी काव्य शैली का अद्वितीय महाकाव्य इसमें कुल पन्द्रह सर्ग हैं। पाठ्यक्रम में निर्धारित ‘चिन्ता सर्ग’ इस महाकाव्य का प्रथम सर्ग है। चिन्ता सर्ग के कथनानुसार मनु जल प्लावन के अनन्तर हिमगिरि पर एक शिला की सघन शीतल छाया में विराजमान चिन्ता से व्यथित हंै। इस ‘चिन्ता सर्ग’ में कवि ने चिन्ता नामक मनोभाव का यथार्थ अैर मनोवैज्ञानिक चित्राण किया है। एकांकी जीवन में चिन्ता का उदय किस तरह होता है, अकेला व्यक्ति निर्जन मेें बैठा हुआ किस तरह चिन्ता में व्यथित रहता है, आदि-आदि बातों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्राण किया गया है।

चिन्ता सर्ग की कथावस्तु - कामायनी की कथा का श्रीगणेश एक भयंकर जलप्लावन से, मानव जाति के आदि प्रवर्तक वैवस्वत मनु से होता है। वैवस्वत मनु देव जाति के व्यक्ति हंै जो आधुनिक मानव के आदि पुरूष हैं। जलप्लावन के उपरान्त मनु हिमालय की एक अत्यन्त उन्नत चोटी पर बैठे हुए हंै, तथा वहाँ से जलप्लावन के विध्वंसकारी दृश्य को देख रहे हैं। इस जलप्लावन में उनकी समस्त देव जाति नष्ट हो चुकी है और वे ही जैसे-तैसे एक नौका के द्वारा जाते हैं, जिसे एक महामत्स्य ने अपने प्रबल चपेट द्वारा हिमालय के इस अनन्त शिखर से ला टकराया है। अब यह जलप्लावन धीरे-धीरे उतरने लगा है और कुछ पृथ्वी भी निकलने लगी है। मनु के समीप ही महावट से बंधी हुई उनकी नौका पड़ी हुई है और वे इस प्रकृति में बैठे-बैठे अपने वैभव सुख और देव जाति के भंयकर विनाश के बारे में सोच रहे हैं।

मनु जानते हैं कि उनकी देव जाति कितनी समृद्धिशालिनी थी। सम्पूर्ण  देवगण अनन्त  शक्ति  सम्पन्न थे। उनमें बल, वैभव और आनन्द भरा हुआ था तथा सभी दिशाओं में उनकी कीर्ति, दीप्ति तथा शोभा का प्रसार था। उन देवताओं ने ऐसी अजेय शक्ति का संचय किया था जिसे देखकर सम्पूर्ण विश्व उनका लोहा मानता था परन्तु कुछ काल के उपरान्त देवताओं में दंभविलास, उच्छृंखलता आदि की अधिकता हो गयी। वे विलासनी सुरबालाओं के साथ मधुप तुल्य निश्चिंत होकर विहार करने लगे। नृत्य, गान, सुरापान आदि विलास क्रीड़ाओं में निमग्न रहने लगे और अपनी देव-कामिनियों के साथ निर्बाध विलास में लीन हो गये। इतना ही नहीं उस देव जाति में पशु-यज्ञों की भी अधिकता हो गयी और वे  लोग देव-भजनों में निःसंकोच भाव से निरीह पशुओं का बलिदान करने लगे। अतः देवों के मिथ्या अहंकार, उच्छृंखलता निर्बाध विलास, पशुबलि आदि की अधिकता के कारण दिव्य-शक्तियाँ कुपित हो गयीं जिससे प्रलयंकारी हलाहल नीर बरसने लगा। कठोर, कुलिश चूर-चूर होने लगे, क्षितिज के चारों ओर विनाशकारी जलधर उठने लगे, वज्रपात होने लगा और इतनी घनघोर वर्षा हुई कि सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न हो गयी। इसी प्रलयंकारी वृष्टि के कारण इतना भयंकर जलप्लावन आया कि उसमें सम्पूर्ण देव जाति बह गयी, उसका सारा वैभव नष्ट हो गया और केवल मनु ही महान मत्स्य की कृपा से एक नौका द्वारा बचे।

    मनु देवताओं के मिथ्या अहंकार, दम्भ आदि के बारे में बार-बार विचार करते हैं और कहते है कि देवगण अपने व्यर्थ अभिमान के कारण ही अपने को अमर समझते थे। वासना, लज्जा तथा कर्म आदि सर्गों द्वारा होता हुआ अन्त में रहस्य सर्ग के द्वारा आनन्द की प्राप्ति करता है।

नामकरण की महत्ता - जल प्लावन की विभीषिका के बाद मनु हिमगिरि की उतुंग चोटी पर बैठे हुए चिन्तित मन से विध्वंसकारी प्रलय को देख रहे हैं। एकाकी जीवन में चिन्ता का उदय किस तरह होता है। अकेला निर्जन में बैठा हुआ किस तरह चिन्ता से व्यथित रहता है तथा किस तरह चिन्तन मनु अपने भविष्य की सुन्दर सुखद कल्पनाओं को देखने लगता है, सोचने पर विवश हो जाता है। आदि-आदि बातों का स्वाभाविक वर्णन इस प्रथम सर्ग में किया गया है। इसके अतिरिक्त कवि ने मनु के मुख से जीवन की क्षण भंगुरता अमरता की मिथ्या भावना, मुत्यु की सत्यता के बारे में जो विचार प्रगट किये हंै वे पूर्ण तथा मनोवैज्ञानिक हैं जिसका उद्भव चिन्ता के ही फलस्वरूप होना सम्भव है। कवि ने सम्पूर्ण सर्ग में अपनी कल्पना एवं प्रशस्त लेखनी द्वारा करूणा की नदी को अविरल गति से प्रवाहित किया है, जिसमें चिन्तित मनु का सम्पूर्ण अस्तित्व ही डूबता-उतराता नजर आता है। इस विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते है कि इस सर्ग में मनु आदि से अन्त तक चिन्तित ही नजर आते हैं। अतः इस सर्ग का शीर्षक चिन्ता ही ठीक है। अन्य दूसरा ठीक नहीं होगा क्योंकि चिन्ता मानव मनोभाव का एक प्रमुख संचारी भाव है।