A.U. B.A. Hindi I Ch. 2. (जयशंकर प्रसाद) - 1

 प्र.1. कामायनी के काव्यरूप की समीक्षा कीजिये।                                           (2008) 

अन्य सम्बन्धित प्रश्न -

प्र. जयशंकर प्रसाद रचित ‘कामायनी’ के ‘चिन्तासर्ग’ के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिय            (2014)  

प्र. छायावादी काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में चिन्ता सर्ग के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिये।      (2018)  

उ. प्रसाद जी छायावादी काव्य के पोषक और जनक होने के साथ-साथ ही आधुनिक काव्य-धारा का गौरवमय प्रतिनिधित्व करते है। प्रसाद जी ने जहाँ रीतिकाल की अफीमची श्रृंगारिकता से कविता-कामिनी को निकाला वहाँ उन्होंने द्विवेदी युग के इतिवृत्तात्मकता के नीरसता के शुष्क रेगिस्तान में उसके सूखते हुए कण्ठ को मधुर रसधारा प्रदान की। प्रसाद जी ने कोमल भावनाओं से कविता-कामिनी का श्रृंगार प्रेम के स्वरूप को कल्पना के रंग में डुबोकर किया है। उनकी काव्य की विशेषताओं का उद्घाटन निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है -

भाव-पक्ष - प्रसाद जी की काव्य की भावगत विशेषताओं का उदाहरण निम्नलिखित शीर्षकों  के अन्तगर्त किया जा सकता है -

रस - प्रसाद जी जीवन के प्रत्येक क्षेत्रा में आनन्द को प्रधानता देते हैं। आनन्द सम्प्रदाय के अनुयायी लोग उसकी दो सीमाएँ मानते हैं - शान्त और श्रंृगार। कामायनी का प्रधान रस श्रृं्रगार ही है। वात्सल्य, वीभत्स, करूण, रौद्र आदि रस सहायक बनकर आये है, यहाँ तक कि रीति का अवसान भी शान्त रस में हुआ है। श्रृंगार का स्थायी भाव रति है। इसलिए कवि ने नारी सौन्दर्य का वर्णन करके मनु में ‘रति’ को उद्दीप्त किया है। श्रद्धा का सौन्दर्य देखिए - 

‘‘घिर रहे थे घुँघराले बाल, अंश अवलम्बित मुख के पास

नील घन-शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास,

और उस मुख पर वह मुस्कान, रक्त किसलय पर ले विश्राम

अरूण की एक किरण अम्लान, अधिक अलसायी हो अभिराम।’’

कामायनी के ‘चिन्ता-सर्ग’  में प्रकृति के विराट रूप का भी वर्णन किया गया है। वहाँ रौद्र रस भी दर्शनीय है-

‘‘उधर गरजती सिन्धु लहरियाँ

कुटिल काल के जालों सी,

चली आ रही फेन उगलती 

फन फैलाये व्यालों सी।’’ 

इसके अलावा भी चिन्ता-सर्ग में करूण शान्त, विप्रलम्भ श्रृंगार आदि रसों का बड़ा ही सुन्दर सजीव वर्णन देखने को मिलता है। कामायनी में तो तीनों प्रकार के विप्रलम्भ देखने को मिलते हैं।

रहस्यवाद - प्रसाद जी के काव्य में रहस्यवाद की सफल अभिव्यक्ति हुई है। प्रकृति के माध्यम से भी उनकी रहस्यवादिता स्पष्ट है। उनके रहस्य में कौतूहल के साथ-साथ अलौकिक प्राणी की प्राप्ति की ओर संकेत है और कहीं-कहीं तो वे उस अलौकिक रहस्यमय प्रियतम को लुके-छिपे यहीं कहीं देखते जान पड़ते हंै। उनकी जिज्ञासा के कुछ उदाहरण देखिए -

‘‘हे अनन्त रमणीया कौन तुम हो, यह मैं कैसे कह सकता

सिर नीचा कर जिसकी सत्ता? सब करते स्वीकार यहाँ।

सदामौन हो प्रवचन करते, जिसका वह अस्तित्व कहाँ?’’

रहस्यमयी सत्ता उनके साथ आँख मिचौनी खेलती है तो कवि आह्वान करता है-

‘‘इन झलकों के अन्धकार में,

तुम कैसे छिप जाओगे?

इतना सहज कुतूहल ठहरो,

यह न कभी कर पाओगे।’’

प्रकृति-चित्राण - प्रकृति की प्रेरणा से ही प्रसाद में कविता के भाव जगे। उसके काव्य में प्रकृति के विविध रूपों का चित्राण है। मानवीय भावनाओं का आकर्षण पूर्ण रूपेण प्रकृति पर किया गया है - कामायनी का ‘काम सर्ग’ प्रकृति को इसी रूप में उपस्थित करता है। वह मानवीय भावनाओं को उत्तेजित करने में सहायक है।

 ‘चिन्ता-सर्ग’ में प्रकृति के स्वरूप की कल्पना और तत्सम्बन्धी वातावरण का निर्माण कवि की असाधारण कल्पना शक्ति का द्योतक है। प्रलय में रौद्ररूप की कल्पना और उसका वर्णन अत्यन्त मार्मिक हुआ है। ‘कुलिषों का चूर होना’ उससे भीषण रूप होना, दिग्दाहों से धूम का उठान, बिजलियों का टूटना, लहरों का गरजना, ज्वालामुखियों का फटना, आदि अनेक भीषण दृश्यों की बिम्ब योजना कवि की वर्णन शैली एवं भाषाधिकार की  सूचना देती हुई प्रकृति के रौद्र भयंकर रूप को प्रकट करती है -

‘‘बार-बार उस भीषण रव से

  कँपती धरती देख विशेष,

मानों नीले व्योम उतर हों

आलिंगन के हेतु अशेष।’’ 

इसके अलावा कवि प्रकृति-चित्राण में  अनन्त सत्ता की झाँकी का भावुकतापूर्वक चित्रा उपस्थित करता है। उसकी वह अलौकिक प्रियतम छाया के पर्दे में सम्मोहन वेणु बजाता हुआ दिखाई देता है।

‘‘छायानर छवि के पर्दे में, सम्मोहन वेणु बजाता

संध्या कुहकिन अंचल में, कौतुक अपनाकर जताता।’’

प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में प्रतीकात्मक प्रणाली के रूप में भी प्रकृति का चित्राण किया है। 

भाव पक्ष- प्रसाद जी का काव्य भावनाओं की अक्षय निधि है। वे प्रधानतः यौवन और प्रेम ही के कवि हैं। ‘कामायनी’, ‘आँसू’, ‘झरना’  और नाटकीय गीतों में भाव-सौन्दर्य बिखरा पड़ा है। प्रसाद जी के यौवन के चित्रा आदर्शपूर्ण और संयत हैं। कल्पित होने पर भी वे वास्तविक बन पड़े हंै। उनके काव्य का प्रारम्भ श्रृंगार  रस के प्रारम्भ होकर शान्त या करूण में परिणत होता है। रस-परिणाम की स्वाभाविक परिणित उनके काव्य में द्रष्टव्य है। संक्षेप में हम प्रसाद के काव्य में श्रृंगार की प्रधानता के साथ दूसरे स्थान पर शान्त और करूण रस का सुन्दर और सफल प्रयोग पाते हैं।

कला पक्ष - भाव-पक्ष की ही भाँति कला-पक्ष को भी निम्नलिखित भागों में विभाजित करतेे हैं -

(1) अलंकार (2) छायावादी शैली की प्रस्तुत योजना (3) लाक्षणिक भाषा (4) छन्द योजना।

अलंकार - प्रसाद जी का कला-पक्ष पूर्णरूपेण उत्कृष्ट है। उन्हें भाषा पर पूर्ण अधिकार है। उनके काव्य में दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग मिलता है, परन्तु उनमें नवीनता दृष्टिगत होती है। इसके अलावा भी उन्होंने अपने काव्यों में कई प्रकार के नये अलंकारों की सृष्टि की है। वृत्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रास तथा वेदकानुप्रास का उदाहरण देखिये -

‘‘कोमल किसलय के अंचल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती सी,

गोधूली के धूमिल पर में दीपक के स्वर में दिपती-सी।’’